ये दीवारी और मैं
ये दीवारी और मैं
इस कमरे की चार दीवारी में,
कुछ बंद से हो गए हैं इन दिनों,
की आज दीवारी ने पूछा हमसे,
क्या सिर्फ़ मेरा ही रिश्ता है तुझसे।
हम मुस्कुराए उसकी ओर देखकर,
और वो मुस्कुराए हमारी आँखें देखकर।
कहे- मैं हूँ सुनने को तेरी,
बस तू कुछ कह तो सही,
कहाँ से शुरुआत करते हम,
बहुत से कहा तू रह तो सही।
ये कहकर ज़ुबान पर चुप्पी छा गयी,
दीवारी भी शक की नज़र में आ गयी।
क्या मिलेगा तुझसे यूँ बयान करके,
तुम भी जाने दोगे दया करके।
दीवारी हँसकर बोली यूँ,
मुझे सबके जैसा तुम समझे क्यूँ,
तुझे चुप देखकर मन को चैन ना आया,
तेरा अकेलापन मुझे बिलकुल ना भाया।
कैसे बताऊँ, कैसे जताऊँ,
बात करने को बहुत है मेरे पास,
पर बात करने को कोई नहीं,
वक़्त देने को बहुत है मेरे पास,
जिसका वक़्त मेरा हो ऐसा कोई नहीं।
अब तुम दिलासा ना देना कोई मुझे,
यही था जो कहना था तुझे।
दीवारी ने कहा- मैं पत्थर ही सही,
पर इंसानी पत्थर नहीं,
मेरी ठोकर तुझे दर्द देती होगी,
विश्वास की ठोकर तुझे उम्र भर होगी।
रंग लोग बदलते होंगे,मैं नहीं,
लोग छोड़ जाते होंगे, मैं नहीं।
जबकि लोगों ने मुझे भी ना बकशा,
बदनाम किया मेरे कान होने पर,
उन लोगों ने कभी सोचा नहीं,
तन्हा लोगों को कभी पूछा नहीं,
मैं हूँ तेरे पास सुनने को,
और मैं सुनने को बदनाम हूँ।
कहती तू उदास ना हो,
लोगों के कारण हताश ना हो।
इस तरह हम मुस्कुराए
उसकी ओर देखकर,
और वो मुस्कुराई
हमारी आँखें देखकर।
ये थे दीवारी और मैं।