वैश्या
वैश्या
सम्मान से जब लोगो के सामने झुकाया अपना सिर
शर्म की गरिमा त्याग कर फिर भी उन्होने बेचा मेरा शरीर
कुदरत की एक पहचान थी मिला था स्त्री का अदभूत रूप
कभी सोचा न था उसी पहचान से भागना पड़ेगा डर स्वरूप
जखम से भरा था शरीर का हर एक हिस्सा
कैसे सुनाती अपना ये दुखभरा किस्सा
खेलने कुदने के दिनो में मेरे सपनो के हुए टुकड़े
उम्र भी नहीं थी तब भी फटते रहे मेरे कपडे
समुंदर के किनारो में लहरों की मंजिल हर बार दिखाई पड़ती है
हर बार नये साहिल तक पहुँचें से पहले अपना रास्ता बदल लेती है
घाबराया था मन उस में काफी यादे छुपी थी
लेकिन दुनिया के बिस्तर पर तो हर रात मेरे जखमों की ही सज़ी थी
दुनिया ने तो वैश्या जैसे शब्द से हमें पुकारा
हर बार नारी के ऐसे सम्मान ने हमें सपने में भी झंझारा
