उन्मुक्त गगन के पंछी
उन्मुक्त गगन के पंछी
बता दे ब्रह्माण्ड को तू समर्थ है विवश नहीं
उन्मुक्त गगन जा तू पंछी तुझपर किसी का वश नहीं
लक्ष्य झुक जाए कदम में इक बार जो तू ठान ले
निराशा की खोलकर पट स्वयं को तू जान ले
मैदान का पत्थर नहीं तू गिरि की चट्टान है
तू पवन का झोका नहीं तू बड़ा इक तूफ़ान है
फिर थका-हारा गिरकर क्यों पड़ा लहूलुहान है
दर-दर क्यों भटकता क्यों हुआ परेशान है
आँसुओ के सागर में सिसकती क्यों जान है
आशाओं का द्वीप तेरा आज क्यों वीरान है
समय स्वयं साक्षी तेरा प्रबल इतिहास है
फिर वर्त्तमान की तुच्छ बाधा क्यों बनाती उपहास है
शक्ति तुझमे गूढ़ है,
फिर क्यों किंकर्तव्यविमूढ़ है
अपने अनंत इस बाहुबल पर, तनिक तो विश्वास कर
पर खोलकर उड़ने का नभ में पुनः तू प्रयास कर
प्रचंड रूप दर्शित कर समय अब है आगया
सुशिल मुख हर्षित कर अकाल का साया गया
स्थिति चाहे विकत हो, त्यागना मत आस तू
कर निरंतर प्रयास तू, रख स्वयं पर विश्वास तू।
