द काम आफ्टर द स्ट्रोम
द काम आफ्टर द स्ट्रोम
हाहाकार मचाती बाधा
जोश रह गया मन में आधा
अँधियारा ज्योति से ज़्यादा
चलने का ना कोइ इरादा
कौटिल्य जैसी बुद्धि है, महाराणा सा बल तुझमे
आशा की प्रज्वल चिंगारी शेष अभी भी है तुझमे
इक जलती चिंगारी से भड़काना जलती आग तू
थककर गिरकर क्यों लेटा है, पुनः आज फिर जाग तू!
माना की तू टूट चुका है,
लोहपात्र सा फुट चूका है
लोह अंशों को पिघलकर, बना एक ब्रह्मास्त्र तू
अपनी नूतन शौर्य कलम से लिखदे नया इक शास्त्र तू
उठा पुनः गांडीव तू, लक्ष्य भेददे तू सारे
जो कल तक निंदा थे करते देख रूप ये है हारे
सामर्थ्य असीम है तेरे अंदर, निराशा को त्याग तू
थककर गिरकर क्यों लेटा है, पुनः आज फिर जाग तू!
हाथ है तेरे बंधे आज क्यों विवशता की ज़ंजीरों से
कल तक जिनकी तुलना होती कोहिनूर के हीरों से
जांबवंत बनकर मै आया कई हनुमान जगाने को
एकलव्य को जैसे अँगूठा हाथ में फिर लौटाने को
स्वप्न से मंज़िल का दुर्गम पथ, हाथों से अब जोड़ तू
गृहत्याग कर सीमाओं का, बंधिश को अब छोड़ तू
समय निकलता तीव्र गति से, तीव्र गति से भाग तू
थककर गिरकर क्यों लेटा है, पुनः आज फिर जाग तू!
