रक्षा-बंधन
रक्षा-बंधन
राखी चुनती है भाई के लिए शौक़ से
फिर बड़े लाड़ से धमकाती है
भाई सच कहती हूँ अगर सताओगे
इस बार नहीं बाँधूँगी राखी
सूनी कलाई रह जाओगे,
बहन का झुठ समझता है वो
फिर भी लाख चिरौरी करता है
नहीं दूँगा इस बार मैं भी उपहार तुमको कोई
न पहनी तुमने पिछले साल दी थी जो बाली नयी
बहन को दे फिर एक झूठी झिड़की
माँ के कान में हौले से कहता है,
क्या दूँ उपहार इसे! माँ तू ही कुछ सुझा!
राखी के दिन सुबह सवेरे जग जाता है
कलाई पर इशारा कर बार बार
अपनी आतुरता दिखलाता है
बहन भी सज सँवर इठलाती है
पूजा की थाली थाम धीरे
धीरे आती है
आरती कर बड़े मान से भाई की
उसकी मंगलकामना करती वह
माथे पे उसके रोली का टीका अंकित कर
सदविचारों को करती प्रेरित वह
कलाई पर अपना निश्चल प्यार सजाती है
हाथों से जीवन में उसके मिठास घोल जाती है
कुछ गरवित , कुछ इतराता सा भाई फिर
उपहार में लपेट उसे रक्षा का वचन थमाता है,
भाई बहन के रिश्ते को माँ अपनी समझ से सींचती है
उसके आँचल में ही यह विश्वास की बेल पनपती है
गले लगते देख स्नेह से अपने ही अंशों को
होंठों पे हँसी उसके खिलखिलाती है
पर प्रेम से रूँध जाता है गला ,
आँखें भी नम हो जाती हैं,
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