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Nasibul Haque

Abstract

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Nasibul Haque

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परेशान बहुत हैं

परेशान बहुत हैं

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घर से बहुत दूर, परेशान बहुत हैं

ऐसे हमारे देश में, इंसान बहुत हैं


सो जाता है भूखा, पड़ोसी हमारा

वैसे तो हम सारे , महान बहुत हैं


गरीबी से उसके हाथ पीले नहीं हुए

दिल में मगर उसके अरमान बहुत हैं


खुदकुशी कर लेते हैं कर्ज के कारण

ऐसे हमारे देश में , किसान बहुत हैं


बूढी मां बनाती है , गांव में रोटी

शहरी हैं बेटे मगर, नादान बहुत हैं


इंसान" ढूंढता रहा मिला नहीं मगर

चारों तरफ हिंदू मुसलमान बहुत हैं


नई नस्ल पढ़ रही है अश्लील किताबें

वैसे तो घर में गीता कुरआन बहुत हैं


मुसीबत में कोई आया नहीं हाल पूछने

कहने को मेरे दोस्त और मेहमान बहुत हैं


किसको कहोगे अपना इस दौर में'नसीब'

इंसान के लिबास में , शैतान बहुत हैं।




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