Prakash mishra

Abstract

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Prakash mishra

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मैं किसान हूँ

मैं किसान हूँ

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बंजर सी धरती से सोना उगाने का माद्दा रखता हूँ,

पर अपने हक़ की लड़ाई लड़ने से डरता हूँ।

ये सूखा, ये रेगिस्तान, सुखी हुई फसल को देखता हूँ,

न दीखता कोई रास्ता तभी आत्महत्या करता हूँ।


उड़ाते हैं मखौल मेरा ये सरकारी कामकाज ,

बन के रह गया हूँ राजनीती का मोहरा आज।

क्या मध्य प्रदेश क्या महाराष्ट्र , तमिलनाडु से लेकर सौराष्ट्र,

मरते हुए अन्नदाता की कहानी बनता, मै किसान हूँ !


साल भर करूँ मै मेहनत, ऊगाता हूँ दाना,

ऐसी कमाई क्या जो बिकता बहार

रुपया पर मिलता चार आना।

न माफ़ कर सकूंगा, वो संगठन वो दल,

राजनीती चमकाते बस अपनी, यहाँ बर्बाद होती फसल।


डूबा हुआ हूँ कर में, क्या ब्याज क्या असल,

उन्हें खिलाने को उगाया दाना,

पर हो गया मेरी ही जमीं से बेदखल।

बहुत गीत बने बहुत लेख छपे की मै महान हूँ,

पर दुर्दशा न देखी मेरी किसी ने, ऐसा मैं किसान हूँ !


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