Sarla Mehta

Abstract

3.1  

Sarla Mehta

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मैं भी नारी हूँ

मैं भी नारी हूँ

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311


पहली बार जब आँखें खोली

गोद किसी की ना नसीब हुई

पीठ फेर लेटी मेरी ममता ने

 बस मेरे झूले की डोर हिलाई


चोरी चोरी कभी माँ रातों में

चूम मुझे थोड़ा सा सहलाती

प्यार दुलार सब भैया को दे

अपने हाथों से दूध पिलाती


सुन उलाहने युवा हो जाती मैं

फिर घर पराए भेज दी जाती

बिना किसी घर दर के अपने

सेवा सबकी कर उम्र गंवाती


बेटी बहन पत्नी फिर माँ बन

अपने बालों में सफ़ेदी लाती

बेटे बहु के आदेश पालन कर

यूँ ही अपना अस्तित्व मिटाती


लेकिन मैं बिल्कुल भूली नहीं 

मै दृढ़ नारी कभी नहीं हारी

परिस्थितियों में तपकर सदा

सोने से भी खरी मैं हो जाती


विदुषी गार्गी व अरुंधती सी हूँ

तर्क वितर्क में हराती मर्दों को

सीता सी कर्तव्यशीला भी हूँ

नहीं समाती लांछन ले धरा में


 ज़हर पीती रहूंगी मीरा सी ही

राधा बन जपूंगी कृष्ण-माला

रुकमा सी सहूँगी सोतियाना

एक ही रहूंगी,बांटुगी नहीं प्रेम


शक्तिपुंज शिवप्रिया बनने को

नहीं दुहराऊंगी जन्म धरा पर

पन्ना बन बचाऊँगी उदय को

 नहीं चड़ाउंगी बलि लाल की


झांसी रानी सी वीरांगना बन

कुचल दूँगी गीदड़ों सपेलों को

फिर कोई शिवानी एलीना सी

मसली नहीं जाए बेरहमी से


हाँ नारी हूँ मैं,कभी नहीं हारी

हर क्षेत्र में ही सब पर हूँ भारी

क्यूँ दुबकी रहे ये बहु बेटियां?

हक़ है उन्हें सर उठा जीने का


नारियां होती हैं अनुशासित

गुजारिश है सभी माताओं से

करें संस्कारित लाड़लों को 

हाँ, मैं नारी, कभी ना हारी हूँ।


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