कश्ती
कश्ती
टूट सी गई है येे कश्ती,
डगमगा सी रही है ये कश्ती।
डर है उस तूफाँ का अब,
जो ले जाए ना इसे कब ।
जानके ना भी सँभाल पाई इसे,
कोशिश कर भी ना जोड़ पाई इसे।
उम्मीद में इस कि कोई आए और सँभाल ले इसे,
टूटने लगी है अब ये कश्ती।
साथ बैठे मुसाफिरों को भी भूल गई मैं,
जो थे मेरे भरोसे उनके सफर के लिए।
ना देखी आँखो की वो उम्मीद,
आज फिर टूटने लगी ये कश्ती।
तूफाँ आता देख सामने घबराया तो नहीं मन,
ना ही डूब जाने का खौफ था मन में।
पर उम्मीद थी किसी के साथ की,
जो सँभाल ले इसे डूबने से।
बस दुआ है कि ये तूफाँ अब थम जाए,
उम्मीद भरी सब आँखो को एक मुस्कान मिल जाए।
कश्ती भी संभाल लूँ अब और खुदी को सज़ा भी करूँ,
पर ना टूटने दूँ इसे अब।
शत् शत् नमन - पूजय माता-पिता को।
