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Gayatri Gouda

Abstract

4.5  

Gayatri Gouda

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खामोशी क्या खुद खामोश होती है!

खामोशी क्या खुद खामोश होती है!

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390


सुबह की किरण जब अंधियारे को

चीर पूरी दुनिया को रोशन करती है,

बेचैन फूल सारे खिल उठते हैं ।।


पंछियाँ चेह्चेहाने लगती हैं,

टीम टीम तारें सब घबरा

कहीं दूर भाग जाती हैं ।।


चेहेक उठती है दुनिया

और साथ जाग उठते हैं

ये दुनिया वाले ।।


फूल अपनी पंखुडियां हिला

मुस्कुराती निखर उठती हैं, और लगती हैं

करने हवा से कितनी सारी बातें ।।


दूर गगन मैं सूरज सीना तान

खडा हो जाता है, उसे देख लोग

अपने काम मैं निर्लिप्त हो जाते हैं ।।


धीरे धीरे शाम को जब नशा चढ़ने लगता है,

झूम झूम के वह सारे जग में 

अपने भांग का रश चढाते जाता है ।।


उसकी मदिरा व्याकुल किसी मन् को

मदहोश कर जाती है, सन्नाटे की तलाश में

वह मन् दूर गगन् को ताकता रहता है ।।


ढलते सूरज के दुपट्टे मैं

मुहं छुपाकर उसकी नज़रें

तन्हाई से गुफ्तगू करती हैं ।।


तब मन् के सागर मैं उथल पुथल

सी होने लगती हैं, ये मन् बिना मुहं खोले

अपने भाव से सारी फ़िज़ा से बातें करती हैं ।।


उस खामोशी के भंवर मैं

बस एक ही ख़याल आता हैं,

बस बार बार एक ही सवाल आता है ।।


खामोशी क्या खुद खामोश होती है?


मोर को जैसे काले बादल का,

चंद्रमा को जैसे काली रात का,

मुझे इंतज़ार है उसी तरह 

इस सवाल के जवाब का ।।


खामोशी क्या खुद खामोश होती है!



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