कब जागेगा हमारा समाज ?
कब जागेगा हमारा समाज ?
काश जीवन का मर्म समझ पाते हम !
जागृत हो पाती हमारी वेदना,
आहत होती है मेरी आत्मा जब देखता हूं
वृद्ध कमजोर लागर उस माँ को,
जो जिगर के टुकड़े की धुत्कार से,
खुद के जिगर में टीस महसूस करती है,
पर दिल में दुआ करती है।
सब बलाओं से दूर रखना
मेरे खुदा मेरी संतान को !
मेरी आत्मा आहत होती है,
जब सुनता हूं समाचार !
महिला उत्पीड़न,
दुर्व्यवहार, दुराचार, बलात्कार !
कराह रही धरती माँ,
मानवता का हरण,
मज़लूमों की चित्कार !
आहत होता हूं मै खुद,
जब देखता हूं
अनैतिकता का बाज़ार गर्म !
और घावों पर नमक रगड़ते
हमारे रहनुमा-रहबर,
नहीं थमता निर्दयता, क्रुरता
और ज़ुल्म व सितम !
आखिर कब जागेंगे हम !
इससे पहले कि नारी बने मुण्डेश्वरी !
नारी को को देना सीखें सम्मान !
आखिर कब तक सहेगी अपमान !
शाहीन अनैतिकता के इस गर्त से
प्रयास करो निकालने का अपने वश भर !
कौन कहता है अकेला चना भांड़ नहीं फोड़ता,
आवाज़ तो दो कस कर !