ज़िन्दगी ...!
ज़िन्दगी ...!


शायद जिंदगी इसी को कहते हैं .....
सपने देखना , सजाना .....,
ओर पागलो की तरह उनके पीछे दौड़ना ,
शायद ज़िन्दगी इसिको कहते हैं ....……!
मिल जाएगी मंजिल इस कश्म कश में ,
और शायद .....? नहीं भी .......!
बीते कल की रंजिशें और
आने वाली कल की ख्वाहिशे ,
इनके फासलों के बीच आज भी
घुट घुट कर जीना ,
जिंदगी शायद इसी को कहते हैं .....!
कल के टूटे सपनों की बिखरी सी यादे ,
और आनेवाले कल केलिए अपनों से किए वादे ,
इन दोनों के साथ जो आज बीत रहा है ,
जिंदगी शायद इसिकों कहते हैं ....!
कल का नटखट बच्चा आंखो के सामने
बेमालूम से जवान बन गया ....;
और इन जिम्मेदारियों के बोझ में दब गया ,
उसकी खर्च होती जवानी ,
और पीछे छूटे अरमान ...;
जिंदगी शायद इसी को केहते है ....!
कोई नहीं चाहता अपनी गलियां छोडकर ,
अंजान अजनबी शहर के भीड का हिस्सा बनाना
लेकीन ये मां के लाडले,
उसकी हंसी के लिये अपनी ख्वाहिशों का भी सौदा करने के लिए तैयार होते हैं ..
जिंदगी शायद इसी को केहते हैं....!
जिंदगी शायद इसी को कहते हैं...!