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Anju Singh

Abstract

4.5  

Anju Singh

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जिंदगी की कशमकश

जिंदगी की कशमकश

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348


जिंदगी की कशमकश में 

हम ऐसे उलझ जाते हैं

कि कब दिन हुआ कब रात हुई

यह समझ भी नहीं पाते हैं


रोज के क्रियाकलापों में 

अपनी सुध भी नहीं ले पाते हैं

जिंदगी में यूं उलझ गए हैं

की खुलकर मुस्कुरा भी नहीं पाते हैं


फ़र्ज जिम्मेदारियों में ऐसे उलझते

मंजिलों पर बढ़ते बढ़ते 

औरों को समझने की उलझन में

खुद को भी समझ ना पाते हैं


जहां देखो इस दुनिया में

सब भाग रहें अंधाधुंध जहां में

मन की खुशी किसी ने ना देखी

उलझ जाते बाहरी चकाचौंध में


जहां भी देखो लोग भाग रहे हैं

मृग मरीचिका की दौड़ में

खुद को कभी बुलंद ना करते

भाग रहे हैं बस दिखावे के होड़ में


बावरा मन को समझना है मुश्किल

कभी खुद से ही लड़ता है 

खुद ही घबराता है

कोशिशों से कभी कभी 

खुद से ही जीत जाता है


अपनों के लिए हमेशा 

मुस्कुरा कर जीते हैं

खुद की बात जहां आती है

अपने गमों को पी जातें हैं


प्यार के रिश्ते में कभी 

खिचें खिचें से रहते हैं लोग

प्यार और जिंदगी के कशमकश में

टूट जाता है रिश्ता चाहत का


जिंदगी की कशमकश में

तमाम उम्र बीत जाती है

जिस्म को संवारने में

रुह मिट जाती है


नादान दिल क्या सोचता है

जिंदगी में हासिल कुछ और होता है

उम्र का भरोसा नहीं पल भर में 

कुछ और हो जाता है


जिंदगी के सफर में

हम चलते हैं मगर

एक तरफ पथरीली डगर

दूसरी ओर खाई

कशमकश जिंदगी की समझ ना आई


कितनी ही बातों को

आंखों आंखों में कह देते हैं

जुबां पर ना ला पाते हैं

इसी कशमकश में हम उलझ जाते हैं


इंसान की जिंदगी में हमेशा

धूप छांव सी छाई है 

उलझ कर रह जाते हम

कशमकश इस कदर छाई है


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