Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer
Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer

Priya Singh

Abstract

4  

Priya Singh

Abstract

इंतजार

इंतजार

2 mins
181


इंतजार में बैठी थी वो,

आशा से आँखे गडा़ए।

पहर बीते, सुरज भी अपनी झोली लिए चल पडा़।

सहसा धड़कने तेज हुई, जब घडी़ में आठ बजे।

आ जाती थी वो सात बजे, लेट होने पर फोन कर देती थी।


पर आज ना अभी वो आयी और ना ही उसका फोन।

बेचैनी सी साँस में थी, कलेजा टुकडो़ में बट रहा।

आँखे भी भर आयी थी, फोन नेटवर्क से बाहर बता रहा।

एक पेड़ तक नहीं बचा इधर,

फिर भी घने खूँखार जंगल हो गए ये शहर, गाँव और गलिया।


शेर नहीं भेड़िये राज करते है इन जंगलो में,

कब चीर हरण कर रूह बुझा दे ये अंदाजा नहीं है इसका।

भगवान के पास क्यूँ विनती करती है ओ माँ।

मंदिर भी अब गुने नहीं इन भेडि़यों के पंजे से।


रूह को बुझा कर, शरीर को जलाकर ये बोलते,

गलती उसकी जो इन जंगलो से गुजरे।

किधर को जाए फिर हम रहने,

अब तो घर हो या स्कूल सब है तब्दील जंगलो में।


अरे जब मंदिर भी न गुना गया इन पंजों से,

फिर घर की चार दिवारी क्या है इनके सामने।

सिमट कर रह जाती है एक चीख सिसकियों में,

पता भी नहीं चलता उन हजारो पथिकों वाले चौराहे पर।


फिर सुबह खबर छपती हैं अखबारों में,

नींद से उठते है कुछ लोग।

मोमबत्तियाँ जलती है उन चौराहो पर,

फिर सब शांत हो जाता है, पहले जैसा।


"अब हम कर भी क्या सकते हैं

इससे ज्यादा" में सिमट जाती है सारी आवाजें 

और फिर सब सो जाते है, फिर सुनसान हो जाता है ये जंगल।

खुले घूमते है वो फिर इन जंगलो में।


शेर तो अब बचें नहीं, विलुप्त हो रहे वो धीरे-धीरे।

न्याय कौन करेगा अब जब गद्दारों ने ही है गद्दी संभाली।


Rate this content
Log in

More hindi poem from Priya Singh

Similar hindi poem from Abstract