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Neeraj Singh

Abstract

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Neeraj Singh

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ग़ायब है

ग़ायब है

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अब तो रविवार की शाम में भी वो सुकून नहीं,

छुट्टी की ख़ुशी और चेहरे की मुस्कान गायब है

घरों में शाम की महफ़िल कुछ सूनी सी है,

खुद में सिमटते हर घर में, कुछ मेहमान गायब है


जो बचपन में फ़िज़ाओं में तैरता था कभी, अब गिरा हुआ है,

न जाने कहाँ उस परिंदे की उड़ान गायब है ?

वो रोज़ की नाकामी और मायूसी से थक चुका है,

शायद, अब उसके सारे ज़िंदा अरमान गायब है


एक भूखा, महज खाली खेत निहार रहा है,

बंजर होती ज़मीन से उसका किसान गायब है.

कैसा काला धुआँ छाता जा रहा है, ये आसमान में ?

चैन की साँस का सारा सामान गायब है


अब टीवी और अखबारों की खबरों से फर्क नहीं पड़ता,

भीड़ में गुम इन कठपुतलियों के अंदर का इंसान गायब है,

ये सियासत-दानों की रहनुमाई है या तानाशाही

उनके कान गायब हैं, हमारी ज़ुबान गायब है।


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