बहस !
बहस !
आग ने हवा से आज बहस की
आँखों में आँखें डाल
हवा ने महज मुस्कुराया भर
आग लगी, लचकने-बहकने
मगर अड़ी रही
भांप लिया था मन उसने हवा का
फिर भी
दूर तक उसके साथ हो आती कहीं
चाबुक की वेग हो जैसी
जब हवा ने कहा
आग तुम अब हवा बनोगी
आग ने कहा,
तुम को आग बनना पड़ेगा,
अपनी ठंडक
छोड़ दो और बंजरापन भी।
हवा चिढ़ गया, चिढ़ गया
संसनाने लगा
बोला औकात मत भूलो
बुझा दूँगा
पानी पर सवार होके आऊँगा
आऊँ? आऊँ?
आग बोली फैलती जाऊँगी
खूब चिल्लाऊंगी
कलेजा ही पीटने
लगी यार एकदम
हवा भी हथकंडो का
हवाला दे रहा था
तु
म तो आवारा, दिशाहीन
ठंडक देने से क्या होता है?
स्थायित्व समझते हो?
आग दो इंच और तन-तन कर
रारा बढ़ा रही थी।
हवा की चुप्पी उसकी
मजबूरी नहीं थी
उसका पौरुष था
तुम एक जगह रहकर
धीमे बढ़ने वाले
अब कितना चीखोगे।
आग, सुनो और साफ सुनो
अपनी लपटों की फर-फर ने
तुम को बहरा कर दिया है
अच्छा, कहो
कि जब तुम रोओगी तो
आग रोओगी क्या?
हा-हा, हा-हा!
क्या हद हो तुम भी
बुझोगी ना तब!
आग उठी थोड़ा चर-चर करती हुई
मगर इस बार कहा कुछ नहीं
चिंगारियाँ धधकी!
उफ्फ़! स्त्री-पुरुष सामंजस्य की
ये बेहतरीन तस्वीर।