बात बन सकती है
बात बन सकती है
लफ्जों को मैंने शाम की चाय पे बुलाया है,
गर बात बन गई तो ग़ज़ल बन सकती है।
धुँधलके में यार को धड़कते दिल ने बुलाया है,
आ गया गर वो दिलवर तो शब बन सकती है।
घूँट सागरे मीना का ठिठका सा है गले में,
उतर गया गर सीने में ये रात बन सकती है।
लफ़्ज़ रुका हुआ ज़ुबान पर उस मासूक के,
निकल पड़े जो यकायक हयात बन सकती है।
बहुत हो चुके इन रस्मों रिवायतों के झगड़े,
दिल खोल के मिलें तो बात बन सकती है।
