औरतें
औरतें


बंद किवाड़ों से झाकंती कुछ
गहरी अखियां
तोड़ कर भीतर की चुप्पी
लबों पर
लाती कुछ शब्द अनकहे से
सुनो हम जे कहते हैं , पर ...
अखियाँ फिर बह गयीं
एक चुप्पी मे
कैद होकर ।
भीतर का अवसादग्रस्त मन अब
अकुलाहट करने लगा हैं ,
खोल डालो द्वार मन के ,
उतार दो न
पुरूष भय के लिबास ,
आओ आज कुछ कहें मन की ।
सुने तन की ,
लगाएं जरा कजरा बन जाए
बाबा की मुनियां।
आओ आज चौबारों पर आए
खटिया बिछाएँ
बैठ कर एक लम्बी घुटन की यात्रा को
तौड दें और जीएं
कुछ मुसकराहट के साथ ।
बहुत डर है भीतर एक औरत का औरत से ?
और पुरुषों के पौरुष का
उतारों भी लिबास अब
चार दिन की जिंदगी आओ
गलबहियां डाले न ।
औरतों और कोशिश करें और बाहर
आए जीवन
के लिए मेरे साथ !