अरविन्द यादव की कविता
अरविन्द यादव की कविता
स्नेह के रंग में रंगा वह घर वह आंगन
जहां खिले रहते थे अनगिनत फूल
जिनकी खुशबू से घर ही नहीं
महक उठता था सारा गांव
जो तेज हवाओं में भी
मिलते रहते थे एक दूसरे के गले
जब से उस आंगन में दूर-दूर से उड़
आ गईं हैं रंग बिरंगी तितलियां
तब से बाबा तुलसी की यह पंक्ति
"सुत मानहिं मात-पिता तबलौं,
अबलानन दीख नहीं जबलौं"
होने लगी है चरितार्थ अक्षरश:
उस आंगन में
इसी कारण शायद
अब नहीं रहना चाहते हैं एक साथ
रसोई के बरतन और नींद के बिस्तर
दरवाजों ने तो जैसे कसम ही खा ली है
एक दूसरे का मुंह न देखने की
अब नहीं सुनाई देती है आंगन में
एक साथ बैठ कुर्सियों के हंसने की आवाजें
अब नहीं दिखाई देती हैं अलाव के पास
सुलगती बीड़ियां करते हुए सलाह
कि कैसे लानी है कल के सूरज से अंजुली भर आग
जिससे नहला सकूं आंगन का उदास चूल्हा
वे आतुर हैं कब्जाने को वह घर
घर के कमरे और वह आंगन
जिसकी मिट्टी में खेल
उठते-गिरते जवां हुईं थीं
बचपन की लड़खड़ाती आदतें
वे जता रहे हैं अपना-अपना अधिकार
उस धरती पर
जो नहीं रखी जाती किसी की छाती पर
सिर्फ उतनी को छोड़ जितनी ओढ़ता है कोई
दरवाजे पर खड़ा वह नीम
जिसने झुलाया था जिनको अपनी बांहों पर
न जाने कितने सावन
आज स्वाधिकार में देख
समेटना चाहते हैं उसका स्नेह
सिर्फ अपनी सीमा में
भूलकर उसके क्षत-विक्षत होते शरीर की पीड़ा
उनके एकाधिकार की बानगी झलकती है साफ
"पानी गए न ऊबरै"कहने वाले रहीम के उस पानी पर
जिसे वह नहीं करना चाहते हैं साझा
एक दूसरे के साथ
यह भूलकर कि अब नहीं बचा है उनकी आंखों में
थोड़ा सा भी पानी
इतना ही नहीं
सब दौड़-दौड़ कर लगा रहे हैं गले
द्वार पर रखे हल से लेकर,डिब्बे में रखी सुई तक को
जिनके संग्रह में नहीं था कोई योगदान
उनके होने का
पर हैरत की बात तो यह है
कि कोई नहीं जता रहा है हक
चौखट का सहारा लिए
माथा पीटती उन धुंधली नजरों पर
उन निशब्द लरजते होंठों पर
हक के साथ जिनके हक से
सब मांग रहे हैं अपना-अपना हक़।