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Usman Gani Khan

Abstract

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Usman Gani Khan

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अफ़साना हो गया मैं

अफ़साना हो गया मैं

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अब जो गुज़र चुका वो अफ़साना हो गया मैं

उसके लिए महज़ इक अनजाना हो गया मैं।


पहले तो काफ़िलों के हमराह चल रहा था 

वो जो मिला है जब से मनमाना हो गया मैं।


क्यूं मुझसे पूंछते हो कैसे जला मैं आखिर 

उसको बना के शम्मा परवाना हो गया मैं। 


दिल की लगी बुझाना आसान तो नहीं था 

मय आँखों से पिलाकर मयख़ाना हो गया मैं।


यह ज़िन्दगी ग़मों से इतनी भरी रही है

आधा भरा छलकता पैमाना हो गया मैं।


तकदीर से कभी भी शिकवा नहीं रहा पर

तुम से नज़र मिली तो दीवाना हो गया मैं।


जब *नूर* इस सफ़र में हमराह चल दिया तो

अब साथ उसका पाकर मस्ताना हो गया मैं।


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