ऐ अम्बर के दीपो
ऐ अम्बर के दीपो
ऐ अम्बर के दीपो, कह दो उस मालिक से
बिलख रही है धरा तेरी न जाने कब से|
जो झूमती थी, गाती थी नाचती थी
नदियों, भूधरों, तड़ागों की स्वामिनी थी|
चुनरिया धानी ओढ़ती थी
सुमन सुरभि से महकती थी|
कलरव से पंछी के चहकती थी
निर्झर सी जो खिलखिलाती
पयोधि को सीने से लगाती|
वो आज खुद ही तड़प रही है
तड़प रही है तेरी वसुधा न जाने कब से...
ऐ अम्बर के दीपो कह दो उस मालिक से
सीने से जिनको अपने लगाया
कदमों को जिनके दिल पे सजाया|
माँ जैसे ज
िनको खिलाया पिलाया
शीतल मरुत झोकों से जिनको सुलाया|
रहने को बसेरा मैंने दिलाया
उन्होंने ही मेरा मस्तक झुकाया|
कुदृष्टि डाली है नारी सम्मान पर
उसको इन्होंने खिलौना बनाया|
दुखता है दिल इनकी बातों से
जिन्होने मर्यादा की सीमाएं लांघी हैं
मानव भी कहलाने के अधिकारी नहीं वो
मुझ पर भी रहने के अधिकारी नही वो|
ओ वनिता पर टेढ़ी नज़रों वालो
कुसंस्कारों के ए पिटारों|
बाज आ जाओ अब इन हरकतों से|
ऐ अम्बर के दीपो कह दो उस मालिक से|