'आखिर' किस इंसानियत का तुम प्रमाण देते हो?
'आखिर' किस इंसानियत का तुम प्रमाण देते हो?
इक खिलती कली को, तुम यूं ही उजाड़ देते हो,
आखिर किस इंसानियत का तुम प्रमाण देते हो?
जिसकी गोद में सिर रखकर, तुम हर रोज सोते हो,
उसकी ही परछाई से, तुम खिलवाड़ करते हो,
आखिर किस इंसानियत का तुम प्रमाण देते हो?
इस संसार के आधार का, क्या ज्ञान न तुमको?
जो विधाता बन, उसके जीवन का निर्णय तुम स्वयं कर जाते हो,
आखिर किस इंसानियत का तुम प्रमाण देते हो?
सरस्वती लक्ष्मी बन, अपने कर्तव्यों को जो निष्ठा से निभाती है,
फिर भी मूर्ख कहकर, जो तुम उसका उपहास उड़ाते हो,
आखिर किस इंसानियत का तुम प्रमाण देते हो?
जीवन के अँधेरों को, उजालों से वो भरती है,
किसी नीरस ज़िंदगी में, वो रस और रंग भरती है,
उसे समझे बिना, आने से पहले, उससे जो पीछा तुम छुड़ाते हो,
आखिर किस इंसानियत का तुम प्रमाण देते हो?
