अ ए ज़िं दगी….
अ ए ज़िं दगी….
अ ऐ ज़िंदगी लगती बड़ी खूब हो तुम मुझे
किसी को मिलती तो किसी को नही
अ ऐ ज़िंदगी चाहूँ मैं इस जमाने को समझाना
कि तुम कौन हो,क्यू हो और कैसी हो
पर शायद ये ज़माना ना चाहे तुम्हें समझाना
तो किसी को अपने शकल, बाल,काम,
आदत प्यारी थी तो कही इन सब में ये ज़माना तुम्हें भूल गया
अ ऐ ज़िंदगी समझ न सके वो फ़ितरत तुम्हारी और कोसते रहे तुम्हें
पर शायद अगर कोई समझ लेता फ़ितरत
तुम्हारी तो शायद खुद तुम ही सफल हो जाती
और कभी एक शाम इतमीनान में सोचता
काश उन दिनों को ख़ुशी से ही जी लेता तो अच्छा रहता
आख़िर में तुम भी एक फ़लसफ़ा ही निकले और
ज़िंदगी ज़िंदगी को बना दिया एक बेचैनी भरा मज़ाक़।