chandraprabha kumar

Children

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chandraprabha kumar

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चैत आए …

चैत आए …

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चैत आए …

  आज स्नान करते समय अपने आप ही मैल छूटने लगा बिना प्रयत्न के ही। कोहनी पर जरा सा हाथ लगाया तो वहॉं की कालिस कम हुई,बिना मेहनत के ही सफ़ाई हो गई। इससे पहले कोशिश करने पर भी कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता था। अचानक याद आया कि चैत्र का महीना आ गया।हर साल चैत्र का महीना याद आ जाता है,क्यों याद आता है इसके पीछे की भी कहानी है। 

  बड़ों की बात भी कितनी सारगर्भित होती है, उसमें अनुभव का निचोड़ होता है। मुहावरों में वे अपनी बात कह जाते हैं और वह बात इतनी सटीक बैठती है कि समय समय पर याद आ जाती है। 

   मेरी मॉं हमेशा मुझे टोकती थीं कि "तुम सफ़ाई से स्नान नहीं करती हो, हमेशा जल्दबाज़ी में रहती हो ,स्नान का मतलब है- शरीर स्वच्छ हो, त्वचा स्वच्छ हो जिससे रोग का आक्रमण न हो, कोई चर्म रोग न हो, स्वेद की दुर्गन्ध न रहे। स्वच्छता से बहुत फ़ायदे हैं।"

 यदि नहाकर आ गये और कान मैला है तो वे कहतीं-"इधर पानी नहीं डाला, सफ़ाई नहीं की। कान झुकाकर हल्के से छींटा दो। कान साफ़ हो जायेगा, पानी भी नहीं भरेगा। "

  बराबर हाथ धोने को कहती थीं कि कोई चीज़ छुई हो, तो उस पर तो धूल बैठती ही है, उसके बाद हाथ स्वच्छ जल से धोकर तब भोजन करो। ऑंख कान नाक में अंगुली मत डालो। सफ़ाई रखो। 

  आज कोरोना काल में टी.वी. से, जगह जगह भाषणों से, प्रवचनों में जो बात बार बार सुनाई दे रही है, वह हम बचपन से मॉं से सुनते आ रहे थे। 

   काफ़ी पहिले की बात है। चैत्र का महीना था। एक दिन मैं स्नान के बाद मॉं के पास गई और प्रसन्नता से बोली-"आज ठीक से नहाकर आई हूँ। कोहनी को हाथ को अच्छी तरह मलकर नहाई हूँ"। 

  मॉं हँसीं और बोलीं-"चैत आए, फूहड़ मैल छुड़ाए। "

   वे हमेशा मुहावरों में बात करती थीं। उनको पता नहीं कितने मुहावरे कंठस्थ थे। समय पर कोई सा भी ठोक देतीं थीं। 

  मुझे इसका मतलब समझ में नहीं आया, पूछा-"क्या है इसका मतलब ?"

  वे बोलीं-"चैत अर्थात् चैत्र। यह विक्रम संवत्सर का पहिला महीना है। नया साल शुरु होता है, वसन्त का आगमन होता है। पेड़ों में नए पत्ते , नए फूल खिलते हैं। सब नवीन हो जाता है। शरीर का मैल भी अपने आप छूटने लगता है। तुमने क्या किया,यह तो चैत का महीना है, अपने आप स्वच्छता आ रही है। फूहड़ अर्थात् जिसको काम करने का सलीका नहीं। नहाने का भी सलीका नहीं, उसका भी मैल छूटने लगता है, चैत्र मास की कृपा से।"

  मुझे लगा कि ऐसे ही कह रही हैं। पर बात सच थी। यह किताबों में नहीं लिखा रहता, स्वयं अनुभव करने की बात है। 

  "मैं कहता ऑंखन की देखी, तू कहता कागद की लेखी"।प्रत्यक्ष अनुभव की बात है। तबसे जब भी मैल अपने आप छूटने लगता है तो पता चल जाता है कि चैत्र का महीना आ गया।

   उस बचपन की बात को बरसों बीत गये, हर साल यह मुहावरा अपना कमाल दिखाता है और चैत महीने के आगमन का स्मरण बिना नागा करा जाता है। इसके लिये पंचांग या पत्रा देखने की ज़रूरत नहीं होती और मैं मॉं के स्मरण में खो जाती हूँ। उनके शब्द गूँजते हैं- "चैत आए फूहड़ मैल छुड़ाए," और उनका हँसता मुखमंडल याद आता है। उनकी मधुर वाणी याद आती है और उनकी हिदायतें याद आती हैं। 

   आज इतने वसन्त पार होने पर भी उनकी स्मृति धूमिल नहीं होती बल्कि और प्रभा पूर्ण देदीप्यमान होती है। उनकी स्वतःस्फूर्त बुद्धिमत्ता की याद दिलाती है। 

 मॉं चली गईं बहुत वर्षों पहिले ही। कोरोना काल नहीं देखा। नहीं तो देखतीं कि उनकी बातों का पालन हो रहा है। सब जगह बताया जाता है मीडिया में कि सफ़ाई रखें, हाथ कैसे धोयें, साबुन ठीक से मलकर कैसे झाग उठायें, ठीक से रगड़कर ऊपर तक हाथ धोयें।


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