"ठहर जा"... कविता
"ठहर जा"... कविता
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ठहर जा -ऐ-जाते हुए लम्हे
इक आरज़ू है इक नन्ही सी मासूम हसरत है।
बीते हुए लम्हों को मेरी बचपन की शरारतों को
हमजोली के साथ मस्ती में लगाते हुए
ठहाकों को इक बार फिर से जी लूं ।
ठहर जा -ऐ-जाते हुए लम्हे
माँ के आंचल में ख़ुद को
छुपा कर फिर से माँ के साथ
छुप्पा की छुप्पाई खेल ल लूं।
ठहर जा-ऐ-जाते हुए लम्हे...!
इन नन्ही- नन्ही सी यादों को,
समेट लूंगा अपने आगोश में
बड़े होने पर जब देखूंगा।
अपने बचपन को तो ये
लम्हे यूं ही आगोश में मिलेंगे ।
ठहर जा-ऐ-जाते हुए लम्हे...!