STORYMIRROR

javed khan

Abstract

3  

javed khan

Abstract

तरक़ीब

तरक़ीब

1 min
202

दौर-ए-आशिकी मे बेहद गरीब रहे हैं सहाब.......

जो शख्स दिल से दूर था हम उसके क़रीब रहे हैं सहाब.......


जो मुहब्बत को मुकम्मल करने की कोशिश में जलता रहा वो दिया सिर्फ में हूँ....

हाँ उसने दिखावा ही किया होगा मगर हम उसके हबीब रहे हैं सहाब...


उसकी तो नींद उड गयी होगी जिसे वो फूल मिला होगा....

ये सारी दुनिया क़िस्मत वाली है हम ही बदनसीब रहे हैं सहाब...


उस पागल बनाने वाली लडक़ी की पलकों का काजल हम खुद को समझ बैठे थे....

हम क्यू चिल्लाते रक़ीब पर हम भी तो उस रक़ीब के रक़ीब रहें हैं सहाब....


ना जानें कितने दानिशमंदो ने उसके हुस्न के साये का पिछा किया....

कितने ही अब उसे कोसते है हम भी दिल बहलाने की तरक़ीब रहे हैं सहाब...                  -ख़ान 

 


Rate this content
Log in

More hindi poem from javed khan

Similar hindi poem from Abstract