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Shakuntla Agarwal

Others

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Shakuntla Agarwal

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रिश्ते

रिश्ते

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ज़िन्दगी के दोगुने भार को ढ़ो रहे है हम,

न चाहते हुए भी रिश्तों को ओढ़ रहे है हम,

हमारी उम्र में हमने,

दादी, नानी और साँस को देखा,

आँगन के बीच पीढ़े पर बैठ,

बहू - बेटों पर गुर्राते हुए,

रिश्तों का असली आनंद उठाते हुए,


वो सेवईयाँ, आचार और पापड़ बनाना,

अपनों के बीच इठलाना,

उन्हें पका कर खिलाना और इतराना,

अँगीठी के पास बैठ कर तापना,

वहीं बैठ खाना खिलाना और गप - शप लगाना,


आज रिश्तों की गरमाहट न जाने कहाँ खो गयी है,

रिश्तों को भुनाने का चलन आम हो गया है,

हर इंसा बनावटी रिश्तों का गुलाम हो गया है,


अपने तो है, अपनापन न रहा,

साथ जीने - मरने का इल्म न रहा,

साफ़ रिश्तों के दरकने की आवाज़ें सुन रही हूँ मैं,

माला में कैसे गूँथ कर रखूँ रिश्तों को,

मुझमें वो दम - ख़म न रहा,


लक्ष्मी और रिश्तों में जंग छिड़ी है,

लक्ष्मी रिश्तों पर भारी पड़ी है,

लक्ष्मी ने ऐसा खेल दिखाया,

हर इंसा को अकेला बनाया,

एक अंधी दौड़ में दौड़ रहे हैं हम,

इसका अंत कहाँ होगा,

"शकुन" उसको खोज़ रहे है हम।।


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