पता
पता
गुजरती रात के साथ, तह दर तह,
खुलता रहा तेरा इश्क़,
तेरे आगोश के समंदर में मै मानिंद ए दरिया,
घुलती रही रातभर,
छत थी सरपे, पर टकराई नहीं आंखो से
तेरी आंखो के सितारे और आसमां के जुगनू
तकती रही रातभर
तेरे पसीने के इत्र से महकती रातभर,
तेरी नंगी पीठ पे कुछ कुरेदती रही
शायद किस्मत में तुम्हे लिख रही थी,
पर वह होना ना था,
और फिर एक बार आ गई दबे पांव सुबह
मेरे घर के रोशनदान में सूरज रखने,
तुम्हारी रुखसती का पैग़ाम लिए,
क्या भूलेगी किसी दिन ये सुबह
मेरे घर का पता,
ताकि वस्ल की रात कुछ लंबी हो,
ज्यादा नहीं तो, मेरी मौत तक ?