मैं मुर्दों से बात करना मुनासिब नहीं समझता
मैं मुर्दों से बात करना मुनासिब नहीं समझता
मै मुर्दों से बात करना मुनासिब नहीं समझता।
वो मुर्दे जो चलते हैं, बोलते हैं, सुनते हैं और देखते हैं।
मुर्दे इसलिये, क्योंकी कई ना एहसास करना जानते हैं,
ना महसूस करना जानते हैं।
इन मुर्दों में जान भी होती हैं और शान भी।
और वहम भी होता है।
वहम, जिंदा होने का और अहम का।
चलते हैं तो सीना तानें, बोलते हैं तो दूसरों को ताने।
कहना तो आता नहीं, बस सुनाते रहते हैं।
सूनते हैं वही जो बस कानों को मीठा लगे।
देखते हैं वही जो रूह को सहलाये।
मै मुर्दों से बात करना मुनासिब नहीं समझता।
क्या कहें ऊनसे जो अपनी ही सपनों में खोये हुए हैं।
क्या कहें ऊनसे जो अपने ही वहम का मय पिये हुए हैं।
क्या कहे ऊनसे जो आंसू बहाना भूल गये हैं।
क्या कहे ऊनसे जो आंसू पौछना भूल गये हैं।
मै मुर्दों से बात करना मुनासिब नहीं समझता।
यारों मै सच्चा इन्सान हूं। दिल का बडा अच्छा इन्सान हूं।
मेरे आंसू आज भी जिंदा हैं।
खुदको अहम बस ईसलिये समझता हूं क्योंकी मै इन्सानियत को मानता हूं।
नसीहत मै क्या दूं, मै बुराई को जानता हूं।
मै मुर्दों से बात करना मुनासिब नहीं समझता।
जिंदगी से पाला पडा था कभी मेरा।
जिंदगी मानों टूट सी गयी थी।
मेरे अरमान बिखरे पड़े थे।
वक्त जैसे थम सा गया था।
इसी आलम में एक एहसास कायम था।
की मै मुर्दा नहीं था। ख़ुद को जानता था, मेरी कमियां मानता था।
मै मुर्दों से बात करना मुनासिब नहीं समझता।
पर कभी खुद मे झांकता हूं तो सोचता हूं,
कुछ बात मुर्दों से भी कर लूं।
कहीं कोई आहट जिंदगी की दिखाई दे।
कोई जिंदा होने की चीख मुझे भी तो सुनाई दे।
जिंदगी एहसास का दूसरा नाम है।
जिंदा लोगों के दिलों में बस यही एक पयाम है।
मै मुर्दों से बात करना मुनासिब नहीं समझता।
पर नासमझ हूं मै एहसास है मुझे इस बात का।
जो मुनासिब ना हो, वो मै कर जाता हूं।
और मुर्दों के बीच, फिर एक बार बिखर जाता हूं।
देखतें हैं मुझे, वो सब जो जिंदा हैं।
कभी आंखों में या रूह में झांकते हैं
और मुस्कुरा के पूछते हैं, के "तू अभी भी सच्चा है?"
मै मुर्दों से बात करना मुनासिब नहीं समझता।
पर क्या करूं? दिल छोटा जो नहीं है मेरा।
मै मुर्दों से बात कर ही लेता हूं। सोचता हूं के वो भी कभी जिंदा हो जाये।
और किसी की जिंदगी के कुछ पलों में वो छांव बनके बिखर जाए।