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Shitiz Dogra

Abstract

5.0  

Shitiz Dogra

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कल रात

कल रात

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तारे टूटे रात भर

पर आवाज़ तक न आयी

सुबह की झोली में बस

मिट्टी भर राख आयी


वो भेजती रही सिसकियाँ

जो हिचकियाँ न बन पायीं

अधूरी रही वो नींद

और ख्वाब न बुन पायी


नज़र गिरवी रख कर

बैठी है खिड़की पर

एक झलक कोई खरीद ले

कुछ तो हो कमाई


बहाने कितने चलें अब

जहां जुबां भी न चल पायी

फायदा क्या ऐसी मेहंदी का

जो तेरा रंगा न लायी


शायद किसी किसी पन्ने पर हो

मुलाक़ात ही एक अधूरी

कि कलम भी टूट कर बोले

माफ़ करना,

मैं बस इतना ही कर पायी।


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