कल रात
कल रात
तारे टूटे रात भर
पर आवाज़ तक न आयी
सुबह की झोली में बस
मिट्टी भर राख आयी
वो भेजती रही सिसकियाँ
जो हिचकियाँ न बन पायीं
अधूरी रही वो नींद
और ख्वाब न बुन पायी
नज़र गिरवी रख कर
बैठी है खिड़की पर
एक झलक कोई खरीद ले
कुछ तो हो कमाई
बहाने कितने चलें अब
जहां जुबां भी न चल पायी
फायदा क्या ऐसी मेहंदी का
जो तेरा रंगा न लायी
शायद किसी किसी पन्ने पर हो
मुलाक़ात ही एक अधूरी
कि कलम भी टूट कर बोले
माफ़ करना,
मैं बस इतना ही कर पायी।