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Vikram Choudhary

Inspirational

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Vikram Choudhary

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इन्सान का टुकड़ा हूँ मैं

इन्सान का टुकड़ा हूँ मैं

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थे शहर में गाँव में

कूचों के कूड़ेदान में

आधे जले श्मशान में

आधे बुझे मैदान में

इन्सान के टुकड़े थे वो

फैंके थे जो इन्सान ने।


ना उगे थे खेत में 

टूटे नहीं थे पेड़ से 

आये ना जो आँधी के संग

बरसे नहीं थे मेघ में

इन्सान के टुकड़े थे वो

निकले थे माँ के पेट से।


फिर क्यों भला नौंची गयीं

सूरत मौहल्ले में कई

पर्चे मुफ़त बाँटे गए

थीं क़ौम की बातें नयी।


मैंने भी एक पर्चा पढ़ा

अपनी नज़र से मैं लड़ा

लिखे थे ऎसे लफ्ज़

जिनको पढ़ के मूँह औंधा पड़ा।


परदों में जो लिपटा था वो

चेहरा बड़ा ही नग्न था

बाज़ार था ऐनक भरा

अपनों का क़त्ल -ए- चश्म था।


कम्बख़त मैं इत्तेफ़ाक़न

बन्दा था उस ही क़ौम का

आधी बची इस उम्र पर

बाक़ी यही इल्ज़ाम था।


साँसें पल भर को रुकीं

दिल हो गया था मौन सा

अपना या अपने अक़्स का

झाँकूँ गिरेबां अब मैं क्या।


मैंने पलक झपके बिना

घर जाके हर काग़ज़ चुना

शामिल जहाँ वो ज़ात थी

जिनमें था तमगा क़ौम का।


तौहमत लगे हाथों में अब

ना ख़ास ना मैं आम था

जल्दी से जल जाने तलक

मेरा मुझी में नाम था।


फूँके इबादत और पूजा

करने के चिन्हात भी

तोड़ी वो दरवाज़े की तख़्ती

जो थी मेरे नाम की

धूमिल हुयी तस्वीर अब

आँखों में उजले ख़ाब की।


क्या करें इस क़ौम का

क्या है ज़रुरत नाम की

नापाक़ है वो धर्म जो  

खोदे क़बर इन्सान की।


ना बसा मुझको ए रब

गीता में और क़ुरआन में

इन्सान का टुकड़ा हूँ मैं

मुझको बसा इन्सान में !


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