एक स्त्री की मनोदशा
एक स्त्री की मनोदशा
!!!एक स्त्री के मन की व्यथा!!!
तोड़ कर क़फ़स की जंजीरों को,
नील गगन में उड़ना चाहती हूँ।
रह चुकी बहुत घर में कैद अब,
लांघ कर चौखट अपने सपने पूरे करना चाहती हूँ।।
नोंच न ले कहीं दरिंदगी के गिद्ध हमें,
इस डर को निकाल फेंकना चाहती हूँ।
बेवाक परिंदों की तरह उड़कर,
अपना अस्तित्व खोजना चाहती हूँ।।
किए है दूसरों के खातिर बहुत त्याग,
लगाई है अपनी जिंदगी भी दांव पर।
बेबसी की साँझ को भुला कर,
एक नई सुबह को आगाज देना चाहती हूँ।।
हक है मुझे भी अपनी बिखरी जिंदगी सँवारने का,
और फ़लक के सितारे भी छूने का।
कल्पनाओं से भरेनपने इस अंतर्मन से,
चाँद को छूना चाहती हूँ।।
तो क्या हुआ अगर मैं स्त्री हूँ,
मैं भी अपने सपनों का राजकुमार चाहती हूं।
बांध कर पैरों में घुंघरू मैं भी,
घनघोर घटाओं संग नृत्य करना चाहती हूँ।।
