चल कहीं दूर चले
चल कहीं दूर चले
चलो दूर चले कहीं ऐसी जगह जहां कोई हंसता भी हो
रोने के बारे में किसी ने जहां अब तक सोचा ही न हो।
क्या ऐसी जगह मिल सकती है आओ चलें मिल के ढूंढें
उगते सूर्य की किरणें सदा हो सूर्य कभी ढलता ही न हो।
जो बुद्ध को दिखाया था और जो बुद्ध ने फिर सोचा था
न कोई मृत देह मिले और कोई कफ़न पहनता ही न हो।
ऐसी कल्पनाएं कौन कौन करता है भला कभी बैठो सोचो
आओ चलें कहीं दूर जहां दूरी को दूरी समझता ही न हो।
मैं पागल हो जाऊं तो सब शून्य और हर विचार की मृत्यु
मैं चाहूं पास या दूर रहना, मन कभी बहलता ही न हो।
अश्वत्थामा हो के सदियों तक क्यूं भटकता रहना पड़े फिर
कोई जगह ऐसी मिल जाए जहां कोई ग़म को जानता ही न हो।