भटकते ख़त
भटकते ख़त
जब ज़िंदगी के उजालों को,
नाउम्मीदी के अंधेरे निगल जाएं,
तो ख़ून के आंसू,
जो ज़ख्मों से रिस कर
आंखों से बहते हैं,
रोज़ लिखते हैं एक अफ़साना,
तकिए के गिलाफ़ पर,
और दफ़न हो जाते हैं,
सहारा के रेत सी
कपास की परतों में,
इन ख़तों का शायद
यही पता मुक़र्रर है।
