बावरा मन
बावरा मन


बावरा मन मूँद पलकें
साँझ ढलती देखता है।
छा रहा है मौन कैसा
हर घड़ी ये सोचता है।
साँझ ने चादर समेटी
चाँदनी झाँकी धरा पे।
चाँद ढलती देख काया
कहे पीड़ा इस जहाँ से
समय रहता न एक जैसा
क्यों डरे फिर हादसों से
जो जिया इक दिन मरेगा
लौट फिर आएगा वापस
रूप बदले रीत बदले
इस नया संसार पाकर
समय यह रुकता नहीं है
यह तो चलता है सदा से
बावरा मन मूँद पलकें
भेद गहरे सोचता है
भोर भी होती रही है
साँझ भी ढलती रही
उम्र की परछाइयाँ भी
बनी औ बिगड़ती रही
नींद गायब है नयन से
पथ कटीले ज़िंदगी के
महकती नहीं वादियाँ भी
स्वप्न निर्बल के खड़े हैं
झील के फिर अक्स जैसे
एक पल में वो मिटे थे
शूल से चुभते हृदय में
आह बन के वो बहे थे
देखता रहा मौन बैठा
यह उठा कैसा धुआँ था
हर तरफ है मौन पसरा
जीव भी हर पल डरा-सा
बावरा मन मूँद पलकें
साँझ ढलती देखता है
छा रहा है मौन कैसा
हर घड़ी ये सोचता है।