STORYMIRROR

Subant Kumar

Abstract

3  

Subant Kumar

Abstract

आदमी आज

आदमी आज

1 min
311

आदमी आज कितना, गरीब हो गया है 

सब कुछ रहते भी, बदनसीब हो गया है 

जीवन की दौड़ में, उलझ गया इस कदर 

कि आदमी आदमी का रकीब हो गया है

पैसा का गुलाम आदमी बेचता ईमान है 

इंसा से इंसा का रिश्ता अजीब हो गया है 

सड़क पर जानवर, तरतीब से हैं चलते 

आदमी को देखो, बेतरतीब हो गया है 

थोड़ा पैसा क्या पाया, शक्ति क्या पायी 

समझता है खुद को वो हबीब हो गया है 

किया खिलवाड़ प्रकृति से स्वार्थ के लिए  

कि हर पल अब मौत के करीब हो गया है 

असर कितना पड़ेगा तेरी बातों का सुब्बू? 

बंजर . की तरह, जो निर्जीव हो गया है 



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract