घर ना कह पाती हूँ मैं
घर ना कह पाती हूँ मैं
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क्यूँ उस मकान को घर ना कह पाती हूँ मैं
गुमनामी की चादर ओढ़े
क्यूँ चुपचाप ना रह जाती हूँ मैं
क्यूँ छलती हूँ खुद को हरबार
क्यूँ अनमने चोट की भांति सह ना जाती हूँ मैं
क्यूँ उस मकान को घर ना कह पाती हूँ मैं
झूठे रिश्ते हँसी उड़ाते है
अरमानों का दम घुटता है
रिक्तता का आभास हो
अपनेपन का भ्रम टूटता है
सपनों की भांति आँसुओ में
खुद भी क्यूँ ना बह जाती हूँ मैं
क्यूँ उस मकान को घर ना कह पाती हूँ मैं।