योगी-भोगी
योगी-भोगी
यह कौन योगी बैठे एकाकी,
आँखों बुझे तो शंस भी रुके,
रुद्राक्ष का माला गले में झुले,
बंद मुख कभी न खुले |
होंगे तापसी तप में डुबे,
सबकुछ छोड़कर पर्वत में बैठे,
इनका दर्शन पुण्य होता,
वैसा महत्मा ईश्वर जैसा |
आंख बंद करके मन को छोड़ा,
पर्वत छोड़कर मन कोई भटका,
कुछ न मिला यही कहता,
न बने योगी, बने एक रोगी।
घर-संसार प्यारा होते,
मिले उर्बसि छोड़ते सारे,
इस पर्वत में ईश्वर न मिले,
हंसना-रोना सबकुछ भूले |
शास्त्र कहता एकेला रहने से,
मिलता ज्ञान शरण लेने से,
हृदय के द्वार क्यों न खुला,
मानब से दूर मानब को भूला |
एकाकी रामु पास में आया,
देखा योगी योग में डूबा,
शिर टेककर प्रणाम किया,
मन ही मन बरदान माँगा |
पापिष्ठ तू जगाया मुझे,
जायगा नरक तप भंग किया,
प्रणाम में गलती रामु माना,
हाथ जोड़कर क्षमा माँगा |
तब भी क्रोध कम न हुआ,
मैं त्यागी तुझे नहीं पता,
तू साधारण होगा भोगी,
असली तप बिगाड़ा तूने,
त्याग की महिमा कितने होते,
तू अनाड़ी कैसे जाने |
अंशु पूँछकर रामु बोले,
होता संसार सबका सार,
बाकी सब होंगे बेकार,
योग में मन लगा न पावे,
उनके योग वियोग बन जाबे,
सृष्टि के कारण संसार होते,
उनमे से योग शुरू होते |
मन योगी के वश में होता,
योगी मन के अधीन न रहता,
उनका मन प्रभु से कहता,
जगत संसार सारे तेरा,
मेरा अहं न ही मेरा,
मैं केवल दास तुम्हारा |
अपने को आप न ही जोड़े,
वियोग हुए योग सारे,
जोड़ते रिश्ते साथ सबके,
देख पाते ईश्वर सब में |
किसान रामु इतना ही जाने,
पर्वत जिनके संसार उनके,
आकाश उनके, भूमि उनके,
सागर-जंगल-प्राणी उनके,
आप उनके, हम भी उनके,
सबकुछ उनके छोड़ते किनके |
पर्वत हो या घर,
शमशान हो या मंदिर,
मनुष्यों या प्राणी,
सबकुछ छोड़ना नहीं पड़ेगा,
छोड़ दो अहंकार |
ध्यान जमाऊँ कीचड़ में,
होंगे मलेमाल,
पर्वत पर बैठे सोचे संसार,
मन हो जाबे कंगाल |
मैं उदासी दास तुम्हारी,
अहं को करो नाश,
जीवन में तू एक ही सच,
न छोड़ो मेरा साथ |
आप जो छोडे में उसे जोड़े,
बिछड़ने से दुखी होता,
जोड़ने से प्रेम पैदा होता,
प्रेम से दुनिया एक हो जाता,
उसी प्रेम से योग सिद्ध होता,
योग से आत्मज्ञानी बन जाता |
पर्वत में दिल पत्थर बनती,
दिल में प्रेम की नदी बहती,
उसी नदी में भक्ति होती,
वही भक्ति ईश्वर चाहती ।