मनोव्यथा

मनोव्यथा

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मैं वृक्ष- तुम्हे धोखा न हो मैं पहले ही बता दूं। मैं किसी गाँव-कस्बे का नहीं शहरी वृक्ष हूँ परंतु अब घास-फूस तक ही सीमित सा होता जा रहा हूँ। वैसे तुम मेरी शक्ल देख कर ही पहचान लोगे मैं शहरी हूँ या गाँव का। चेहरा मेरा मुरझाया सा होगा और पत्तियाँ मेरी सूखी सी होगी जड़ें भी मेरी बाहर सी निकली होंगी और ना चाहते हुए भी इंसानो की देह का मूत्र विसर्जन स्वीकार कर रही होंगी। हाँ कल मैं बंजर भूमि पर किसी लुप्त प्रजाति सा पड़ा होऊंगा और किसान उस मेघ को कोस रहा होगा जो छा तो जाता है परंतु बरसता नहीं। हाँ अवश्य ही तुम्हे आश्चर्य हुआ होगा मैं किस प्रकार अभी तक जीवित हूँ। अब तक तो मेरा अस्तित्व ही मिट जाना चाहिए था। हाँ चिंता की कोई बात नहीं है वह दिन निकट ही हैं वैसे हम शहरी और गाँव-कस्बो के जीवन का अंतर सामान-सा ही होता जा रहा है। यदि शहर में प्रगति अपनी चरम सीमा पकड़ रही है तो गाँव-कस्बो में भी प्रगति ने अपने पैर पसार लिए है यहाँ हम घास फूस तक सीमित होते जा रहे हैं और वहाँ आरम्भ हो चला है।
यह तो हुआ मेरा परिचय जो की एक दिन इतिहास में गुम हो जाना है। वैसे मुझे मेरे बीते साल जब भी याद आते हैं रुला जाते हैं। किस प्रकार मैं बड़े-से बड़े हिम मौसम में अपने स्थान पर अडिग रहकर उन हिम बौछारो का सामना करता और हिम चादर में स्वयं को लिपटा पाता था। पक्षियों का झुण्ड भी मुझ मे समा जाता और सुबह की पहली किरण पड़ते ही उनका शोरगुल शुरू हो जाता मनुष्य भी मेरे नीचे खड़े होने से घबराता कहीं वह वृक्ष मुझ पर न गिर पड़े। परंतु आज जिस प्रकार मनुष्य हमारा अस्तित्व समाप्त करता जा रहा है आज हमें मनुष्य के छोटे-छोटे प्रतिबिम्ब भी भयभीत कर जातें हैं। मुझे याद है माँ ने कहा था जिस भूमि पर हमरा जन्म हुआ है वहाँ हमें पूजा जाता है, हमारी जैसी कई ऐसी प्रजातियाँ है जिन्हें पूजा जाता है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं की हमारा अंत नहीं होगा। अंत तो सभी का है किसी का देर से तो किसी का शीघ्र परंतु आज के दौर में हमारी मृत्यु की नियति शायद शीघ्र ही आने वाली है। जिस प्रकार स्वार्थी मनुष्य का लालच और उसका अहम बढ़ता जा रहा है वह हमें अनदेखा कर समाप्त करते जा रहा है। जब तक मनुष्य की धार्मिक भावनाओ का सहारा हमें प्राप्त है तभी तक हम जीवित हैं परंतु मनुष्य की लालच का कोई भरोसा नहीं वह कब हमें समाप्त कर रातो-रात हमारे स्थान पर नई इमारत खड़ी कर दे इसका कुछ पता नहीं।
मुझे हमेशा से भय रहने लगा, मैं जब भी मनुष्य और उनके उपकरणों को अपने परिवार के समक्ष देखता, मुझे लगता मनुष्य आज मेरा परिवार समाप्त कर देंगे और एक दिन उस भय का सामना हो ही गया। मैं मनुष्य और उन उपकरणों को अपने परिवार वालो की देह में घुसता हुआ देखता रह गया। मेरा परिवार और आस-पास के रिश्तेदार सभी उस मानव उपकरण की भेंट चढ़ चुके थे और मैं एक कोने में छुपा सा रह गया। समय बीतता चला गया और मेरा परिवार नीचे सूखा पड़ा रह गया। मेरे लिए अब क्या रह गया था? कुछ भी तो नहीं, कोई बताने वाला भी तो न था, कहाँ जाना है या मेरी नियति मनुष्य के हाथो ही मर जाना है। इच्छा न थी बड़े होने की यदि बड़ा हुआ तो मनुष्य की नजरों में आ जाऊँगा और मैं भी एक दिन समाप्त का दिया जाऊँगा। परन्तु बड़ा होना मेरे हाथो कहाँ था धीरे-धीरे समय बीतता चला गया और मेरे परिवार वालों के स्थान पर अब नई इमारतों का निर्माण शुरू हो चला और देखते ही देखते ऊंची-ऊंची इमारतों ने मुझे घेर लिया। रात्रि जब परिवार वालो के स्थान पर गया तो वहाँ अब ठोंस इमारतें ही महसूस हुई। मैं उन्हें स्पर्श करता हुआ और आँखों में परिवार की यादों को ले अपनी जगह पर वापस आ खड़ा हो गया। इन ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच मैं स्वयं को किसी कैद खाने में महसूस कर रह था।
मनुष्य की संख्या अब बढ़ने लगी थी और मैं भी अब बड़ा हो चला था। यह मनुष्य इन ऊँची इमारतों के बीच मुझे अकेला जान कुछ रंग फूल जल चढ़ा नत मस्तक कर जाते पता नहीं क्यों यह कूड़ा मुझ पर चढ़ा जाते। मन तो चाहता इनका मस्तक ही निकाल के रख लूँ जो कूड़ा चढ़ाने के बाद नत मस्तक कर जाते। मुझे फिर माँ कि कही बात याद आती ''धार्मिक भावना'' शायद मुझे अब मनुष्य की धार्मिक भावनाओ का सहारा मिलना आरम्भ हो चला था।इसलिए यह कूड़ा मुझ पर डाला जाता है। हाँ मनुष्य अब मुझे पूजने लगे हैं और एक दिन पूजते-पूजते ही मुझे काट डालेंगे परंतु उनका क्या जिन्हें मनुष्य की धार्मिक भावनाओ का सहारा नहीं मिलता। उन्हें तो मनुष्य सदा से ही समाप्त करता आ रहा है और शायद करता ही जाएगा। हाँ, मैं हूँ वो वृक्ष जिसे मनुष्य धार्मिक भावनाओ का सहारा नहीं प्राप्त, क्या करूँ कुछ भी तो नहीं कर सकता जो करना है मनुष्य ही करेगा और शायद कर ही रहा है।जिन अमर बेलों से मैं घिरा रहता था आज वो बिजली तारों को घेरे रहती है और हमारे लिए अमर बेलों का नाम ही अमर हो गया है। अब सिर्फ बिजली तारों मेँ देख कर ही उनका अहसाहस कर लेते हैं और यह बड़े-बड़े भूत जैसे विशालकाय टावर जिनके हाथ दानव से दिखाई प्रतीत होते हैं। आज उनमे भी अमर बेलों का झुण्ड का झुण्ड लिपटा रहता है। बिजली खम्बे तो हमसे ऐसे सटे रहते हैं मानो हम उनके सहारे खड़े हैं और हम अपना सर उन तारों मेँ जकड़ा पातें हैं। पक्षियों को भी बिजली के खम्बे और टावर बहुत आकर्षित किये जा रही है या कहे मजबूरी है। 
दिन प्रतिदिन हमारी आयु सीमा भी काम होती जा रही है और यदि किसी की आयु सीमा ज़्यादा हो तो मनुष्य के आधुनिक आविष्कारो के शोर की पीड़ा जीने नहीं देती।अन्धकार और प्रकाश का अनुभव तो मानो हमारे लिए समाप्त ही हो गया है भूले भटके एक दो पक्षी हमारी डाल पर बैठ सो जाए तो पता चलता है कि अब अन्धकार हो चला है हमें भी कुछ श्वास ले लेनी चाहिए या कहे विष। मनुष्य की घरेलू और सामाजिक गंदगियों ने हमें इतना घेर लिया है कि जल क्या होता है हमें पता ही नहीं। इतना ही नहीं मनुष्य अपना मूत्र हम पर विसर्जन करने में भी संकोच नहीं करते तो क्या यह सब ग्रहण के पश्चात हम तुम्हे स्वच्छ वायु दे सकते हैं। हमें अब स्वयं के प्रतिबिम्ब से भी घृणा होने लगी है आधुनिक आविष्कारों की दुनिया में हमारा वजूत समाप्त होता जा रहा है। स्वयं को इन ऊंची इमारतों के बीच चींटी सा महसूस करने लगे हैं। जगह-जगह बड़े-बड़े ऊँचे-ऊंचे घुमावदार पुलों का निर्माण होता जा रहा है जिनमे तरह-तरह की मोटर गाड़ियाँ अथक चलती रहती हैं और हमारे सर पर नाचती रहती है। पक्षी जानवर तो एक समय सोता भी है परंतु मनुष्य तो उनसे भी गया गुज़रा है ना स्वयं सोता है न दूसरे को सोने देता है। नई इमारतों ने तो हामरे हिस्से की धूप भी छीन ली है जिसकी तपन हम अपने भीतर ले धरती का तापमान कायम रखते थे। हमारी ज़िन्दगी की नियति अब इमारतों के कोनो और सड़कों के किनारों तक ही सीमित रह गयी है यदि खुले में आये तो हमें काट इमारतों में ढाल दिया जाएगा जहाँ कभी हमारे झुंडों के बीच इक्का-दुक्का लकड़ी घांसों की निर्मित झौपड़ियों का बसेरा हुआ करता था। वहाँ आज हम स्वयं को किसी गन्दी सी झौपड़ी सा महसूस करते हैं जिन्हें इमारतों के निर्माण हेतु कभी-भी काटा जा सकता है और रात को यह टावर की जलती हुई बत्तियाँ हमें ऐसी प्रतीत होती है मानो यह हमें रातो-रात निगल ही जाएंगी और मनुष्य हमें हमारी प्राकर्तिक जगाहों से हटा कर छोटे से पात्रों में डाल अपनी नई इमारतों की शोभा के लिए हमारा वजूत गायब करता जा रहा है। 
अरे मैं तो गाँव वालों के जीवन को भूल ही गया था वहाँ का क्या हाल है आओ चलो वहाँ चलते हैं कुछ बातें उनकी भी सुनते हैं। हाँ आज ठंडक भरी हवा नहीं चली इसका अर्थ क्या अवश्य ही आज गाँव में बर्फ नहीं गिरी होगी। हाँ मैं अभी तक गाँव का वृक्ष हरा-भरा सा परंतु कब तक। इसका ज्ञात नहीं जिस बड़े से पत्थर के समीप हमारा बसेरा है वहाँ की निकटम झीलें अब सुख के सिकुड़ चुकी हैं। हम किसी कोने को पकड़े हुए है जल भी हमें वर्षा के दिनों ही प्राप्त होता है। वो दिन दूर नहीं जिस दिन बड़े से पत्थर में हम सुखी काई से जमें हुए दिखाई प्रतीत होंगे। शुरुआत तो हो चली है क्योंकि अचानक ही बर्फ का गिरना काम हो चला है और जो बर्फ गिरती है उनमे अब वो ठंडक नहीं रह गई जिस बर्फ की बौछारों से हमारी डालियाँ झुक जाती थी। आज वह बर्फ महज़ हमारी पत्तियों तक ही सिमित रह गई हैं और डालियाँ हमारी सूखी रह जाती है। जिस बड़े से पहाड़ में अनगिनत हमारे जैसे वृक्ष और जानवर पक्षियों का जीवन था आज उसके दो टूक कर वहाँ बिजली टावर खड़ा कर दिया गया है और मनुष्यों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। जहाँ कभी अन्धकार में पहाड़ों के भीतर से जानवरों की आँखे चमका करती थी आज वहाँ से आधुनिक मोटर-कारों की लाइट का प्रकाश पहाड़ का सीना चीरता हुआ दिखाई पड़ता है। पहाड़ों को तो जैसे आधुनिक मार्गों ने निगल ही लिया है। जगह-जगह बिजली खम्बे उग पड़े हैं भले ही दूरी में हैं परंतु यह दूरी कब समाप्त हो जाए। क्या पता हमारे साथ-साथ पक्षियों और जानवरों का बसेरा भी लुप्त होता जा रहा है। भले ही पक्षी इन टावरों और खम्बो पर अपना बसेरा बना ले। परंतु आरम्भ से ही उनका प्राकृतिक बसेरा तो वृक्ष ही रहा है। यह इंसान की कैसी प्रगति है जिसमे हमारा सर्वनाश नज़दीक दिखायी दे रहा है यथार्थ में मनुष्य हमें समाप्त कर रहा है या स्वयं को समाप्त करने का आरम्भ कर चुका है।


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