अरुण राजपुरोहित

Drama

5.0  

अरुण राजपुरोहित

Drama

जिसके सिर ऊपर तुम स्वामी

जिसके सिर ऊपर तुम स्वामी

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नागपुर, संतरों की नगर। धीरे धीरे और नजदीक आ रहा रहा था। और आते जा रहे थे संतरे बेचने वाले। हर स्टेशन पर। ढेरों संतरे के टोकरे के साथ अनेकों लोग घुस आते ट्रेन के डिब्बे में। दस के दस - दस के दस। सुन लिया था मैंने भी, सोचा अरे वाह! इतने सस्ते? फिर सोचा कम से कम तस्दीक तो करूँ, एक से पूछा कैसे दिए भाई? उसने झट से 10 संतरे कागज की पन्नी में अटका कर पकड़ा दिए। अरे ये क्या बात हुई, बस रेट ही तो पूछा था। पर सोचा 10 रुपए में सौदा बुरा भी नहीं, जेब में हाथ डाला कुल 160 रुपए में से 10 का नोट निकाल धीरे से पकड़ा दिया। संतरे वाला आगे बढ़ गया। मैं संतरों को निहार रहा हूँ, क्या करूँ? अभी खा लूँ ? नहीं नहीं रात में खाऊंगा जब दोबारा भूख लगेगी जोर से। कमबख्त ये भूख भी ना, कुछ भी हो जाए अपने टाइम पर लगती ही है, आरआरबी मुम्बई का एग्जाम है मेरा, शायद इस बार बात बन जाए इस आशा से चला आया हूँ मुँह उठाए। पास का जुगाड़ हमेशा की तरह फर्जीवाड़ा करके कर लिया, फ्री आना जाना तो हो जाएगा एससी वाले पास से, पर भूख? उसका क्या करूँ? माँ ने पूड़ी और चटनी बना कर दी थी, रास्ते के लिए। पर 8 पूड़ी कितने टाइम चलेगी? 2 दिन हो गए है। नागपुर की ओर बढ़ा जा रहा हूँ, दिन में एक टाइम भूखे रह कर 8 पूड़ी से 2 दिन तक काम चलाया, अब आज शाम का खाना ये संतरे बनेंगे। वाह गरीबी में भी गुलछर्रे हाँ, अपने मन की बात से मुस्कुरा लेने का मन हुआ पर चुपचाप बैग में संतरे रख कर बाहर के दृश्य निहारने लगा हूँ। बदलते प्राकृतिक दृश्यों के साथ इंसान भी बदले बदले से नजर आने लगे है। गांधी टोपी लगाकर खेतों में हल चलाते पुरुष, और विशुद्ध महाराष्ट्रीयन परिवेश में महिलाएँ, सोच रहा हूँ बाकी सब तो ठीक है पर ये नेता वाली टोपी ये लोग क्यों लगाते होंगे? क्या पता इधर इसे पगड़ी की तरह सम्मान का सूचक मान लिया गया हो, या शायद गांधी जी ने ही ये टोपी राजनीति के लिए इन लोगों से उधार ली हो, पर गांधी जी तो टकले थे और वो तो कभी टोपी लगाते भी नहीं थे, कहाँ लगाते कुछ अटकाने का जुगाड़ भी तो होना चाहिए, हे हे हे, वैसे कायदे से इसे अगर नेहरू टोपी कहा जाना चाहिए, और मेरे ख्याल से उस पर किसी को ऑब्जेक्शन भी नहीं होगा। ह्म्म्म, पर मैं भी क्या क्या सोच रहा हूँ फिजूल में, ट्रेन बढ़ी जा रही, खपरैल वाले घर बहुत प्यारे लग रहे है। जब मैं जॉब पर लग जाऊँगा छोटा ही सही एक अपना सुंदर सा घर जरूर बनाऊंगा। पर रेल एम्प्लॉयी को तो सरकारी क्वार्टर मिलता है, कोई ना, कुछ भी हो अपना घर आखिर अपना होता है। भूख लग रही, संतरे खा लूँ? नहीं थोड़ा पानी ही पी लेता हूँ। दो घूँट पानी पीया, पानी थोड़ा सा ही है इसमें, अगले स्टेशन पर बोतल भर के रख लूँगा। मुझे लगा था कि अगला स्टेशन नागपुर ही है, पर ये तो कुछ और ही आ गया। खैर जो भी हो थोड़ा सुस्ता लूँ, रात भर भीड़ में सो भी नहीं पाया।


'मे आई हैव योर अटेंशन प्लीज गाड़ी संख्या 12622 तमिलनाडु एक्सप्रेस, नई दिल्ली से चल कर ग्वालियर, झांसी, भोपाल के रास्ते चेन्नई जाने वाली सुपरफास्ट सवारी गाड़ी प्लेटफॉर्म नम्बर 4 पर खड़ी है, नागपुर रेलवे...' नागपुर नाम सुनते ही हड़बड़ा कर उठ बैठा हूँ, बाहर देखा, नागपुर रेलवे स्टेशन का बोर्ड धूप से चमक रहा। दिन के लगभग 2 बजने को है, अपने छोटे पिठ्ठू बैग सहित स्टेशन पर पधार गए हम, पानी की खाली बोतल फिर से लबालब होकर बैग में अपना स्थान ग्रहण कर चुकी है। कम्प्यूटर वाली लड़की अब अंग्रेजी में अटेंशन करके हिंदी की वही उद्घोषणा अब अंग्रेजी में भी दोहरा रही। मुझे अब वो सुनने में कोई इंटरेस्ट नहीं, जिनको है वो कान लाउड स्पीकर पर टांगे अपनी अपनी गाड़ियों की ओर दौड़ लगा रहे। मैं चुपचाप टहल रहा हूँ, एग्जाम तो कल है, सुबह 9 बजे और अभी तो सिर्फ 2 बजे है पूरे 19 घण्टे बिताने है इस बीच। सोचा यहाँ क्या करूँगा कुछ देर रेलवे वेटिंग हॉल में ही गुजार लूँ, आँखें उनींदी है नींद ही मिल जाए तो क्या कहने।


 'हाँ भैया, एंट्री करवाइए पहले, अरे आपको तो नागपुर ही आना था, पहुंच गए न, अब किसका इंतज़ार कीजिएगा? कल का रिटर्न टिकट है न, कल आइए, अभी जाइए'


'सर थोड़ी देर ...'


'समझ में नहीं न आता है तुमको, क्या बोले हम? कल आना, टिकट है तो क्या पूरा रेल्बे खरीद लिए हो? नियम कानून कुछ जनबे की ना?'


वो गुस्सा हो गया, मन ही मन उसे 'साला बिहारी' बोल कर अपनी खुन्नस निकाली और धीमे कदमों से स्टेशन से बाहर आ गया। कहाँ जाऊं? क्या करूँ? अगर वो वहाँ रुक जाने देता तो क्या बिगड़ जाता? इतने लोगों में एक और सही, क्या फर्क पड़ता? पर नहीं, पक्का लालू का चमचा होगा ये, नौकरी लग गया तो इंसान को इंसान समझना ही भूल गया है। कोई सिफारिश, कोई पैसा नहीं है मेरे पास किसी को देने को, पर देखना मैं भी लग जाऊँगा, पर मैं कभी इसकी तरह नहीं करूंगा। स्टेशन से बाहर जाने किस ओर बढ़ा जा रहा हूँ, बाहर कुछ रेहड़ियाँ टाइप दुकानें या दुकान टाइप रेहड़ियाँ लगी हुई है पाव भाजी, टिक्की, समोसा, दही भल्ले की खुशबू जबरन नथुनों में घुस रही। लोग देखो कैसे भुक्खड़ों की तरह खा रहे, कितना गन्दा लगता है न इस तरह से खाना, जानवर साले, जब देखो खाना खाना खाना, हाँ मुझे भी खाना है, पर उसके लिए पैसे नहीं है मेरे पास, 150 रुपए? उसका खाना नहीं खा सकता, बचा कर माँ को दूंगा तो कितनी खुश होगी, आश्चर्य करेगी इतने से पैसे में इतनी दूर जा आया? वैसे गुस्सा भी करेगी शायद, कहेगी भूखा क्यों रहा? पर पैसे काम आएंगे घर पर, मैं एक-दो टाइम न खाऊं तो मर थोड़े न जाऊँगा। अरे हाँ, याद आया,अब क्यों मरूँगा, संतरे है न वो कब काम आएंगे? नहीं नहीं अभी नहीं शाम को खाऊंगा। अरे लेकिन 10 संतरे है एक-दो अब खा लूँ तो क्या हर्ज है बाकी शाम को खा लूंगा। वैसे देखा जाए तो आईडिया ये भी बुरा नहीं। सड़क के किनारे बैठ गया हूँ, बैग से संतरे बाहर निकाले। बदबू आ रही थी उनसे, ये कैसे संतरे दिए यार, इतनी जल्दी खराब भी हो गए, एक एक को टटोला, पिलपिले से लगे, सूंघा तो उबकाई आने लगी। पास के कचरा पात्र में सब विसर्जित कर दिए। दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, मेरा नाम इन पर नहीं लिखा होगा शायद।


बैग उठाकर अनजान गन्तव्य की ओर बढ़ा जा रहा हूँ, किसलिए ? शायद बस समय गुजारने के लिए, ये शहर की खूबसूरती, ऊंची ऊंची इमारतें, अज्ञात खोजने को दौड़ लगाती अनन्त गाडियाँ, बड़ा सा सर्किल आ गया रस्ते में, भीतर हरी हरी दूब लगी है। मैं बकरी की तरह लालसा से दूब निहारता हूँ, खाने के लिए नहीं पर पाँव दुखने लगे है सोचा काश यहाँ थोड़ा सा आराम ही करने को मिल जाए तो कितना अच्छा हो। लेकिन चारों ओर तेज गति से भागते वाहनों ने जैसे इसकी सुरक्षा का जिम्मा ले रखा है। आखिर कोई जाए भी तो कैसे? फिर से चल पड़ा हूँ, रास्ते में कोई रेल म्युज़ियम था, बाहर से ही तांक-झांक करके सन्तुष्ट हो गया, अंदर जाने के 30 रूपये कौन दे, उससे अच्छा कुछ खा न ले। हाँ खा लूँगा, मर नहीं जाऊँगा एक-दो टाइम न खाने से, ऐसा करूँगा कि कल एग्जाम के बाद खा लूँगा। फिर टेंशन फ्री। चलते चलते एक पार्क आ गया, वाह भगवान शुक्र है, कुछ तो अच्छा मिला इस कंक्रीट के जंगल में। समय शाम के 6 बजे है, 2-3 लम्बी लम्बी कुर्सियां लगी है। कुछ बच्चे खेल रहे है, थोड़ा अंधेरा हो रहा है, कुछ मोटी आंटीनुमा औरतें पजामे और टी शर्ट जैसे दिखने वाले कपड़ों में जबरदस्ती घुस कर फ़टाफ़ट लगभग हाँफती हुई पार्क की पगडंडी नाप रही है। अंधेरे से मुकाबला करने को बिजली के जुगनू टिमटिमाने लगे है। मैं ऐसे ही एक जुगनू के करीब की कुर्सी पर उसके पंख निहारने को बैठ गया हूँ, एक युगल पहले से वहाँ बैठा था, मादा ने मुँह दूसरी ओर घुमा लिया तो नर ने घृणा से मेरी ओर देखा। मानो कह रहा हो, हमारे प्रणय में व्यवधान डालने वाले धूर्त चल भाग यहाँ से। चुपचाप मैं दूसरी ओर देखने लगा हूँ, फिर मुड़ कर देखा पाया कुर्सी पर मैं अकेला ही हूँ। समय रात के 8 बज चुके है। पाँव फैला कर थोड़ा आरामजनक मुद्रा में आ गया, ऊँघने लगा। अचानक देखा 7-8 लोग मुझे घेर कर खड़े है।


उनमें से एक बोला, ‘कौन हो तुम?'


'जी जी मैं स्टूडेंट हूँ, एग्जाम देने आया हूँ।’


'क्या सुबूत है तुम्हारे पास?'


'मेरा कॉल लेटर और आईडी देख लीजिए।’


गहन निरीक्षण हुआ, फिर एक बोला, 'यहाँ क्या कर रहे हो, यहाँ कौनसा एग्जाम हो रहा? जाओ किसी होटल में जाओ।’


'पर मेरे पास उतने पैसे नहीं है सर।’


'वो हम नहीं जानते, तुम्हारी हेडक है वो, इदर नहीं रुकने का मल्लब नहीं रुकने का, फूटो इदर से, सोसायटी का पार्क है ये।’


'लेकिन सर, मैं किसी को क्या नुकसान पहुंचाऊंगा, बस सुबह होते ही चला जाऊंगा।’


'नहीं, अम्मा का घर समझे क्या, बहुत चोरी होती इदर, पुलिस में दे दें तुमको? चल फूट।’


कुछ और प्रतिवाद करने की हिम्मत न हुई, फिर से बैग उठाया, सच बहुत भारी भारी लग रहा है अब ये, और उससे भी भारी कदम। पांव इतना दर्द कर रहे मानो 10-10 किलो वजन पांव में बांध दिया है। रोने जैसी हालत है, पैसे होते तो मैं भी अब तक किसी अच्छे से कमरे में आराम कर रहा होता। समय रात के 10 बजने को है, इतनी रात में कहाँ जाऊं, बस धीरे धीरे चला जा रहा हूँ, सामने एक कुत्तों का झुंड है, अगर ये मेरे पीछे पड़ जाएं तो मुझे यही फाड़ कर पार्टी कर लेंगे। पर कुत्ते शांत रहे, मैं चुपचाप आगे बढ़ गया। इंसानों ने कुत्तों की तरह व्यवहार किया, पर कोई बात नहीं अब कम से कम कुत्तों की ये इंसानियत भली लग रही। कुछ कहने को नहीं है मन अजीब सा हो रहा है। दूर लाइट्स जगमगाते देख सोचता हूँ ये सब आखिर किसलिए, सिर्फ दिखावे के लिए न, कोई इंसान भूख से, प्यास से, पीड़ा से मर भी जाए तो किसी को कुछ फर्क पड़ेगा? बिल्कुल नहीं।


चलते चलते उस जगमगाती इमारत तक भी आ गया हूँ, अरे ये तो गुरुद्वारा है कोई, जाने कैसे कदम उस तरफ मुड़ चले, अंदर गुरु का लंगर वितरित हो रहा, देखा एक ओर मेरे जैसे बहुत से छात्र सो रहे, धीमे स्वरों में गुरुवाणी के मीठे बोलों की स्वरलहरियाँ गूंज रही, "जिसके सिर ऊपर तुम स्वामी, सो दुख कैसा पावे।"


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