बच्चे का बचपन

बच्चे का बचपन

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अभी चारो तरफ सन्नाटा थागर्मियों की सुबह थी, लेकिन अभी इक्के- दुक्के लोग ही बाहर निकले थेवह बेहद धीमे, अस्फुट स्वर में न जाने कौन सा गाना गाते चला जा रहा थाउसको गाने का कोई शौक नहीं था, न ही वह किसी प्रकार के मानसिक शांति के लिए गा रहा थाफिर वह क्यों गाता था पता नहीं, शायद आदतन गाने लगा थाउसकी आँखों में एक अजीब किस्म की चमक थीकिसी दुर्लभ और अप्राप्य सफलता प्राप्त करने से उपजी चमक से बिल्कुल अलग, यह चमक ऐसी भी नहीं थी जो बोधिसत्व प्राप्त करने के बाद बुद्ध की आँखों में आई होगीलेकिन यह किसी चोर या धूर्त बनिए की आँखों की चमक भी नहीं थीइन सबसे अलग बस उसकी आँखे चमकती थी, और यह चमक ऐसी थी जैसी घुप अँधेरे में बहुत देर बाद जब आँखों से दिखाई देने लगता है तब आँखों में आती होगीकुछ ऐसी अजीब, अपरिभाषेय चमक लिए वह चारो तरफ देखता हुआ जा रहा थाउसके चारो तरफ देखने में कोई भयबोध या अपराधबोध नहीं थालेकिन निश्चित रूप से उसमें किसी विजयी योद्धा का गर्वोन्नत भाव भी नहीं थावह बस चारो तरफ देख लेता था, ऐसे जैसे वह कुछ देख न रहा हो, बिल्कुल निर्लिप्त, तटस्थउसकी चाल में हड़बड़ी नहीं थी, लेकिन कोई सम्भ्रान्त स्थैर्य भी नहीं थावह ऐसे चला जा रहा था दिन भर का थका कोई शाम को जल्दी घर जाने के प्रयास में होगति ऐसी जिसमें तेजी का आभास दिखे लेकिन मानो थके हुए पांव जमीन से उठ न रहे हों 
१४-१५ साल के उस बच्चे के शर्ट की बटन खुली हुई थी, या शायद उसकी शर्ट में बटन थे ही नहींउसकी लम्बाई से लगभग डेढ़ गुना शर्ट उसके ठूंठ जैसे जिस्म पर मानो लटका दिया गया होशर्ट की एक बांह फटकर निकल चुकी थी, और दूसरे को उसने मोड़ रखा थाशर्ट लगभग उसके घुटने तक लटकती थीवह खुश था ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन निश्चित रूप से वह दुखी भी नहीं थाउसकी शर्ट, जो अब उसकी ही है, जगह जगह से फटी हुई थीखुले हुए शर्ट से उसकी छाती साफ़ नज़र आती थीमहीनों न नहाने की वजह से पसीने की एक गन्दी मोटी लकीर उसकी छाती के बीचोबीच होते हुए उसके पेट तक जाती थी जो न जाने कितनी बार सुखकर अब एक ठोस और स्थायी रेखा बन गयी थीचेहरे, गर्दन और पेट के बाकी हिस्सों पर मैल की एक परत जैम गयी थी, जैसे पानी की टंकियों के सतह पर काई जमकर हरे से गाढ़ा भूरा या कुछ काला जैसा हो जाता हैकुल मिलकर वह इतना गन्दा था कि कोई भी भद्र और कुलीन सामजिक व्यक्ति उसे देखकर अपनी नज़रे फेर लेतालेकिन उसे यह बात शायद मालूम नहीं थी या उसे फ़र्क़ नहीं पड़ता था क्योकि उसने अपनी शक्ल कभी नहीं देखी थी
ऐसे ही वह चलते चलते कूड़े के एक दैत्याकार पहाड़ के सामने पहुंचकर रूकाथोड़ी देर उसके नीचे खड़े होकर वह कूड़े के उस पहाड़ को एक विचित्र भाव-भंगिमा के साथ देखता रहाउसकी दृष्टि में एक कुशल कुशल योद्धा कि सतर्कता थी जो अपने सामने खड़े शत्रु को समझने का प्रयास कर रहा हो लेकिन एक अवधूत की निर्लिप्तता भी थी जैसे उसे कोई मतलब न हो, और देख रहा हो सिर्फ इसलिए क्योकि वो दृष्टा है और उसके सामने दृश्य है, बिल्कुल निरुद्देश्य, निर्लिप्त
उसके बाद वह कूड़े के पहाड़ पर चढ़कर कूड़ा बीनने लगाउसी कूड़े के पहाड़ से ही कोई कपडे का टुकड़ा उठा कर उसने एक गन्दी सी पोटली तैयार कर लीअब तक दिन भी कुछ चढ़ आया थाउसने बीने हुए कूड़े को पोटली में समेटा और उस पहाड़ से नीचे उतर आयावापस आते वक़्त वह फिर से कोई गाना गाा रहा थाशायद वही वाला जो वह एते वक़्त गए रहा था या शायद दूसराउसका गाना सुना नहीं जा सकता थावह न जाने क्यों गए रहा था, वह भी नहीं जानता था 
कूड़े की पोटली लटकाए वह मंदिर के सामने से गुज़रा तो उसने कूड़े की पोटली सड़क के किनार रखा, और पाइप से आ रहे पानी से अपना मटमैला हाथ धोकर, लंगर की लाइन में खड़ा हो गयाएक प्लेट में खाना लेकर वो अपनी गन्दी पोटली के पास आ गयाउसकी गन्दी पोटली में एक कुत्ता तबसे मुंह मारे जा रहा था और वह निश्चिंत भाव से खाना खा रहा थावह ज़रूर भूखा था लेकिन वह बहुत तेज-तेज नहीं खा रहा था लेकिन ऐसा भी नहीं था कि उसे खाना बुरा लग रहा होवह शांत भाव से खा रहा था, लेकिन यह शांति किसी प्रकार से महान नहीं थीइस शांति में एक विचित्र प्रकार का सूनापन था, एक रिक्ति, एक अभावलेकिन वह भाव अभाव से पर सिर्फ खा रहा थाखा चुकने के बाद उसने बची हुई २-३ पूड़ियाँ उसकी पोटली में मुंह मार रहे कुत्ते के सामने रख दी और अपनी पोटली टांग कर चल पड़ा

रास्ते में वह देशी शराब की दूकान पर एक बार फिर रूकाऐसे नहीं जैसे कि वह ठिठक कर रूका हो, लेकिन ऐसे भी नहीं कि जैसे वह वहीँ जाने के लिए निकला होबस वह देशी शराब की दूकान के सामने रूक गयाअबकी बार उसने चारो तरफ नहीं देखा बल्कि सीधे शराब की दुकान में घुस गया और बिना कुछ बोले अपनी घिसी हुई कमीज के जेब से टटोलकर २५ रूपये निकले और दूकान वाले की तरफ बढ़ा दियादुकानदार ने बिना उसकी और देखे एक शीशी बढ़ा दी जिसे उसने अपना पहले से ही पिचके हुए पेट को कुछ और पिचका कर पेट और कमीज के बीच खोंस लिया और अपनी पोटली के साथ आगे बढ़ गया
कुछ गलियां, मोहल्ले, ऊचीं ऊचीं आलीशान इमारतों और भागती हुई सडकों को पार करके वो एक गन्दी गली में पहुंचाजहाँ सूअरों के लिए रहने के लिए बनाए जाने वाले बाड़ों जितनी लम्बाई-चौड़ाई की मैले कुचैले और फटे हुए टाट के टुकड़े और रद्दी के अखबार से बनी हुई बाड़ेनुमा आकृतियां एक कतार में खडी थींगर्म लू में इन तमाम अहातों में लगे रद्दी अखबार और रंग-बिरंगे कपडे के टुकड़े फड़फड़ा रहे थेलाल-पीला-नीला-हरा-काला-सफ़ेद-बैंगनी-मटमैले रंगों के लहराते हुए छोटे-छोटे टुकड़े जो आमतौर पर शायद खूबसूरत लगतेलेकिन यहाँ उनमें खूबसूरती नहीं थी बल्कि उनमें एक खास किस्म की बेहयाई और नंगई का आभास होता थावह इस घृणास्पद जगह के एक किनारे में लगे हुए नल के पास पहुंचा, जिसके आसपास जमा हुए पानी में मच्छर तैर रहे थे और गन्दगी से उबकाई सी आती थीलेकिन वह उनके बीच अविचल भाव से नल के पास पहुंचाउसने अपनी कमर में खांसी हुई शीशी निकली और 1 घूंट में शीशी आधी खाली कर दी और फिर उस नल के बदबूदार पानी से उसने शीशी दुबारा भराफिर, बाड़ों की इसी कतार में से एक बाड़े में जिसको शायद वह घर समझता था उसमें घुसाउसके बाड़ेनुमा घर की दीवारों यानी कपडे, टाट और अखबार की वह सतह जो एक बाड़े को दूसरे से अलग करती थी से सटकर पुआल डालकर उनके ऊपर गंदे कपड़ो का गट्ठर न जाने कब से बिछा हुआ था जो अब एक बिस्तर का रूप ले चुका थाजिस पर एक मरियल सी बूढ़ी औरत सोई हुई थीगौर से देखने पर मालुम होता था कि वह उतनी बूढी थी नहीं जितनी वह लगती थीकुछ ३०-३५ साल की उम्र में उसका चेहरा जली हुई रोटी की तरह हो गया था जिसमें जगह जगह दाग, धब्बे, काले निशान दिखते थेउसके जिस्म के चमड़े अभी ढीले नहीं पड़े थे लेकिन उसके शरीर में मांस कहीं शेष न थापानी की कमी से सूख गए पौधे की तरह उसका जिस्म अजीब तरह से ढल चुका थावह औरत ऐसे लेटी हुई थी कि एक बारगी उसे देखकर किसी लुगदी के गट्ठर का भ्रम होता थालड़के की आहट पाकर उस औरत की आँखे खुली, मगर उनमें आहट की और पलटने की शक्ति शेष न थीउस औरत के शरीर का सारा दर्द एक आह बनकर उभरना चाहता था लेकिन जैसे उसके गले तक आकर फंस गया, और उस औरत ने आह भी न भरी सिर्फ उसका मुंह खुल गया नि:शब्दथोड़ी देर बाद जैसे प्राणों की समस्त संचित ऊर्जा को एकत्र कर वह एक बुदबुदाहट से स्वर में बोली,"दवाई लाया?" उसका चेहरा हांलाकि दूसरी दिशा में था लेकिन यह प्रश्न निस्ससनदेह रूप से उस लड़के कि आहट को लक्ष्य करके पूछा गया थालड़के ने कोई जवाब नहीं दियाउसने एकमात्र टेढ़े मेढ़े जस्ते की पुराणी कटोरी में शीशी का पानी मिला शराब उड़ेल दिया और कटोरी उस औरत के मुंह से लगा दिया

कटोरी खाली करके औरत फिर लेट गयी और वह लड़का उसके सामने बैठा रहादोनों ने कुछ बोला नहींलड़के की आँखें उस औरत के माथे पर टिकी हुई थीमगर वह उसे देख नहीं रहा थावह कहीं खोया हुआ था, निश्चित रूप से किसी विचार में नहीं खोया थावह उस औरत के चेहरे और जीवन में धंसे हुए शून्य में खोया रहाऔरत को नींद आ गयी और थोड़ी देर बाद वह लड़का उठ खड़ा हुआउसने कूड़े की थैली उठाई और कहीं चल पड़ा
शाम को वापस आते वक़्त उस लड़के की कूड़े की थैली में २ सूखी रोटियां थीबीने हुए कूड़े बेचकर मिले पैसों से उसने ऑमलेट खरीदा और एक शीशी भीवह वापस उसी बाड़ेनुमा घर की और लौट रहा था जहाँ एक औरत सोई हुई थीवापस आते वक़्त न जाने क्या गुनगुना रहा था, उसका स्वर अब भी श्रव्य नहीं था, वह चारो और देखता हुआ बढ़ रहा था लेकिन उसके चेहरे पे कोई भाव नहीं था। न कोई पराजय की ग्लानि, न विजय का उन्माद, बिल्कुल तटस्थ, निरपेक्षऔर होंठों पर एक अस्फुट स्वर... कोई गाना जो वह न जाने क्यों गाता था!


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