बरसों से जिस कड़वी जबान के साथ उसका उठना-बैठना था, उसे उसदिन क्षणभर के लिए झेलना इतना द
दरवाजे की आड़ में खड़ी बहू ने एक गहरी साँस ली और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे-
ऊपर से देखकर ही अपनी कल्पना कर लेते है बल्कि हक़ीक़त कुछ और ही होती है।
छोटी मुस्कुराकर कह रही थी.."माँ सा धंधे दुकान अलग हुए हैं हम नहीं।"
आखिर में उन ताई सास ने बड़ी मुश्किल से 11रुपए दिये। ऐसे लोक व्यवहार नेग रिवाज़होते हैं
ग्यारह की शक्ति के आगे नतमस्तक है।"