"वक़्त! मानो ठहर सा गया हो"
"वक़्त! मानो ठहर सा गया हो"
वो बचपन के क़िताबों में, कई कहानियों में,कहिं दीवारों पर,
तो अक्सर किसी की जुबान पर सुना करता था कि,
"कभीकभी ज़िन्दगी थम सी जाती है,
वक़्त ठहर सा जाता है, सन्नाटे भि शोर करते हैं, खामोशियाँ भि किलकारी मारा करती है,
और एक पल में मानो सदियों का सफ़र बस सिमट कर रह जाती है।"
उस वक़्त इनके मायने मालूम ना थे इसलिए ये बातें महज़ कहावत बनकर हवा हो जाया करती।
पर आज वक़्त का सितम कुछ युं चला मानो सारी बातें हकीक़त बनकर दिल के समंदर में उफ़ान मार रही हो।
बातों की गहराई से रूबरू होकर कुछ यूं महसूस होगा कभी सोचा न था।
ना जाने ये किसी के जाने का ग़म है या किसी को खोने का ख़ौफ़,
अधूरेपन का अंधकार है या रुठे मन की शरारत।
क्यूँ नज़दीकियों से रुस्वाई भी है और दूरियों से लड़ाई भी।
ना जाने आज मेरे इन अल्फ़ाज़ों में इतना दर्द क्यु है, किसी के इंतज़ार में मेरी ये आँखें नम क्यु है,
लबों कि मासुम हँसी मायुसी कि मुजरिम बनी क्यु हैं, मेरे उन ख्यालों के खुशनुमा घर मे आज इतनी वीरानी क्यूँ है,
क्यूँ दिल कि धड़कन सिकुड़ सी गई है,
आज तन्हाइयों का ये तूफ़ान ताण्डव क्यूँ मचा रहा।
क्यूंकि आज वक़्त की बेवफ़ाई ने फ़ासलों कि फ़ितरत सामने लाई है,
किसी के ना होने की अहमियत का अहसास दिलाई है,
आज जाकर वक़्त के ठहराव को जान पाया हुँ, क्योंकि वक़्त के गर्व में छिपे बहुत से राज़ से वाक़िफ़ हुआ हुँ।