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Ravi Purohit

Others

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Ravi Purohit

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तुम यूँ ही खुशबुआती रहो

तुम यूँ ही खुशबुआती रहो

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तुम कब आई

और लोप गई मुझमें चुपके

अपनी तमाम भूत-अनुभूत संवेदनाओं के साथ

मैं ढूंढता रहा बाहर तुझे

और तुम पसरती रही

भीतर ही भीतर

पूरी शिद्दत से।


अधखुली आंखों ने तब ही स्वप्न देखा

कुछ अलसाया,

कुछ जगता-सा

मोगरा मुस्कुराया,

चमेली खिलखिलाई

रात-रानी भी सकुचाई-शर्माई

प्रीत-हवा के झौंके-से

जिंदगी खुश्बुआई।


घबराई-सकुचाई-सी तुम

देखती रही पगलाई-सी

मैं देखता रहा बेसुधी तक तुझे

बाहर से

भीतर तक

पूर्णता के साथ तन्मय होकर


कभी नाजुक छुई-मुई

बन जाती हो

शक्तिरूपा अनायास ही तुम

रोती-रुलाती, कलपती-कलपाती

बन कर कटार

उतर जाती हो कलेजे के आर-पार

तभी कहीं भीतर

फूट पड़ता है नेह-निर्झर

बेशुमार प्यार-दुलार फुहराता

स्पंदित कर जाता है

दिल के तार-तार


तब लगता है कि मान-सम्मान की पुरवाई ने

सूरजमुखी को तुलसी बना दिया हो जैसे

जीवन-पोथी के बेतरतीब बिखरे पन्ने

एकाएक व्यवस्थित होकर

खूबसूरत जीवन-दर्शन की

नायाब पुस्तक के अंश बन गये मानो

और तब तुम्हारा मुझमें होना

अर्था जाता है मेरे स्वः को !


मदमस्त गुलाब-सी खुश्बुआती तुम

सरसा जाती हो तन-मन

प्रेम-प्रीत और नेह की सरगम

झनाझना उठती है

भीतर कहीं !


कभी किसी चलचित्र की नायिका-सी

आकर सामने

चिढा जाती हो मुझे

सुनो कविता !

तुम मुस्कुरा दो ना !!


तुम्हारा मुस्कुराना जरूरी है

संवेदना के लिए

अहसास के लिए

पीढी को संस्कारित करने के लिए

तुम अगर यूं उदास हो बैठोगी

तो फिर मेरा होना क्या मायने रखता है ।


तुम

आ रही हो ना कविता

अपनी पूर्णता के साथ

मेरे भीतर...

आ जाओ

मैंने खोल दिए हैं सारे कपाट।


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