पुरूष
पुरूष
मेरा मानना है कि पुरुष का जीवन चुनौतियों का पर्यायवाची है।
अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस पर पुरुषों की अन्तर वेदना की अभिव्यक्ति देता मेरा गीत।
दुनिया के तमाम पिता, पति, और पुत्रों को समर्पित....।
बैठ अकेला रो लेता हूं
फिर भी हँसकर जी लेता हूं
ग़म को मान के मीठा शर्बत
आंख मूंदकर पी लेता हूं।
कर्तव्यों की कठिन डगर पर
नंगे पांव चला हूं हरदम
फिर भी पत्थर कहती दुनिया
कब बदलेगा मेरा मौसम
रिश्तों की उधड़ी तुरपाई
को चुप्पी से सी लेता हूं
ग़म को मान के मीठा शर्बत
आंख मूंदकर पी लेता हूं।
कोई असली सूरत देखे
मुश्किल कितना मेरा जीवन
आरोपों प्रत्यारोपों से
छलनी छलनी हो जाता मन
सबके सपने पूरे करने
के खातिर मैं जी लेता हूं
ग़म को मान के मीठा शर्बत
आंख मूंदकर पी लेता हूं।
सिक्कों के खातिर कर लेता
पत्थर जैसी सख्त हथेली
सर्दी गरमी रहूं भागता
परिकर बैठे बड़ी हवेली
सर पर सबका बोझ उठाकर
बन रोबोट मैं जी लेता हूं
ग़म को मान के मीठा शर्बत
आंख मूंदकर पी लेता हूं।
