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Janvi Mishra

Abstract

2.5  

Janvi Mishra

Abstract

Poem on Father:

Poem on Father:

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599


माँ की ममता को तो, सब ने ही स्वीकारा है

पर पिता की परवरिश को, कब किसने ललकारा है !


मुश्किलों की घंडियों में अक्सर, मेरे साथ खड़े थे वो

मेरी गलतिया थी फिर भी, मेरी खातिर लड़े थे वो !


कमियों की अहसास, मुझको कभी तो हो न पायी

कपकपा कर सोते थे वो, मेरे ऊपर थी रजाई !


माँ की गोदी की गर्माहट, के बराबर उनकी थपकी

कंधे उनका बिस्तर मरी, आंखे हलकी सी जो झपकी !


उनके हौसलों ने कभी न, आँखें नम होने दिए है

जितने थी मेरी जरूरत, सबको तो पूरी किया है !


उनकी लाड में जो पाया, थोड़ी कड़वापन सही

मेरी खातिर मुझे डाँटा, था वही बचपन सही !


जिंदगी की दौड़ में अब, अपने पारों पर खड़े उनके

जज़्बातों की बदौलत, मुश्किलों से हम लड़े !


सर पे उनका साया जब तक, चिंता न डर है कोई

उनके कंधों की बदौलत बढ़ रही है जिंदगी !


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