कविता
कविता
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न जाने
अनजान बस्ती में
अनजानों के बीच
अनजान बन दिल
न जाने क्या ढूंढता रहा।
बिन पंखों के मन का पंछी, फलक तक उड़ता रहा।
सर्द रातों से लिपटी
चंद यादों में
अनजानों के बीच
हमदर्द को ढूंढता रहा
बिन पंखों के मन का पंछी, फलक तक उड़ता रहा।
रात के सन्नाटे में
नदिया के कलकल में
चीड़ देवदार से गुजरती हवाओं में
पत्तों की सरसराहट में
किसी बेनाम अनजाने को ढूंढता रहा
बिन पंखों के मन का पंछी, फलक तक उड़ता रहा।
दिल कलम बन
आंसुओं से
जिंदगी की दास्तान
लिखता रहा
बिन पंखों के मन का पंछी, फलक तक उड़ता रहा।
अनजान बस्ती में
अनजानी गलियों में
अनजान बन दिल
न जाने क्या ढूंढता रहा
बिन पंखों के मन का पंछी, फलक तक उड़ता रहा
न जाने क्या ढूंढता रहा।
