खंडहर मकान
खंडहर मकान
गांव के बाहर पड़ा एक खंडहर मकान
बांहें फैलाए सब को बुला रहा है
अपने आंगन में पड़े खाली झूले को
धीरे-धीरे हवा से झूला रहा है
होती थी कितनी रौनक
कभी हर त्यौहार पर यहां
प्रेम से खाते थे खाना
सब मिलकर जहां
घर की सारी स्त्रियां
मिलकर करती थी हर काम
रहता था लोगों का आना जाना
चाहे सुबह हो या शाम
सारे के साथ मिलकर
दूर तक जाते थे स्कूल
सुबह अगर हो गई तो लड़ाई
शाम तक वे जाते थे सब भूल
इसी आंगन में बैठकर दादी
सबको सुना दी थी कहानी
सुनने में आता था बड़ा मजा
चाहे नहीं हूं या हो पुरानी
चाचा ताऊ पिताजी या भैया
सब मिलकर काम पर जाते थे
शाम को लौटने पर सब
आंगन में बैठ ठहाके लगाते थे
सी के बच्चे को रोते देख
कोई भी गोद में लेकर छुपाता था
सारे बहन भाइयों को मिलकर
लड़ने में भी बड़ा मजा आता था
दीवाली पर एक जैसे कपड़े पहन
हम सब बड़े इतराते थे
भाई के पुराने जूते पहने
बड़ी खुशी से नाचे जाते थे
घर की दाल रोटी भी
पिज़्ज़ा से अच्छी लगती थी
बड़ों से मिली हुई सीख
कितनी सच्ची लगती थी
पर अब सब चेहरे की खोज में
ना जाने चले गए कितनी दूर
थोड़ी सी शोहरत को पाकर
हो गए हैं सब बड़े मगरूर
बदलता हुआ समय है यह
हर रिश्ते को भुला रहा है
पर गांव के बाहर वाला मकान
सब को वापस बुला रहा है