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सुरभि शर्मा

Others

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सुरभि शर्मा

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गाँव तुम खुद बदले

गाँव तुम खुद बदले

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सबको याद रहा ये सम्मोहन 


पेड़ों की छांव में

हरियाली भरे गाँव में

चिलम के धुएँ उड़ाते

चाय की चौपाल बिछी

जहां बंटते थे सुख - दुख, 

चूल्हे की सोंधी रोटियाँ 

सिल-बट्ट पे पीसी चटनियाँ 

पाहुनों की थाली में 

परोसे जाते थे असीमित सत्कार, 

क्या मात्र यही दिखते थे गांव की

महान आत्मीयता का आधार? 


भूले तो सिर्फ गांव के इन अवगुणों को 

जिसने शहर को सम्राट बना दिया।


लट्ठमारों का रंगदारी कर 

मेहनत की पूंजी, उड़ा ले जाना।

मन्दिर में दर्शन को गए किसी व्यक्ति का 

आपसी रंजिश के कारण वापस घर न आ पाना।

संयुक्त परिवार की महिमा गाते हुए 

कुछ बेहद चालाक स्त्रियों का 

गृहस्वामिनी बन हर किसी पर

अपनी धाक बनाये रखने के लिए 

गृहस्वामी को "तीन का तेरह" बताना।

सरल स्त्री का चुपचाप हमेशा 

हाथ के एक कोने में 

अपने घूंघट का एक कोर गीला करते हुए 

अन्नपूर्णा बने हुए 

आधी रात तक धुएँ में अपनी 

आँखों को झुलसाना।

और पानी के छींटे डाल गर्म चूल्हे को ठंडा करते हुए 

अपने भूख और प्यास दोनों को ही एक साथ 

एक गिलास पानी से बुझाना।


गौ माता की सेवा करते, उपले थापते

अचानक नंगे पाँव में कहीं फांस चुभ जाना 

और फिर कुछ दिनों में 

गोरखुल का दर्द लिए 

गीत गाते धान कुटते जाना।


किसी को न याद रहा 

प्रसव पीड़ा से तड़पती वधु को 

तुरंत सुविधा न मिल पाना 

बूढ़े माँ - बाप की, अचानक आधी रात 

तबीयत खराब हो जाने पर 

आकस्मिक कोई चिकित्सा न मिल पाना 

और फिर सुबह, ईश्वर के आगे किसकी चली है 

का राग गाना।

 नहीं याद रहा किसी को 

सुविधा और सम्पन्नता के अभाव में 

गांव के मेधावी बच्चों का अनपढ़ रह जाना।


जो अनाज उगा हमारा पेट भरते हैं 

अक्सर उन पर भारी कर्जों का लद जाना।

सबके घर बसाते मजदूरों का 

खुद बेघर रह जाना।


सुनो, ये एक बहुत बड़ा झूठ है कि 

गांव में हर किसी के पेट भरे होते हैं 

"शहर में जो काम होते हैं 

हर काम के एक निर्धारित दाम भी होते हैं 

साथ ही उसके सम्मान भी होते हैं।" 


पर गाँव सिर्फ पूँजीपत्तियों और रंगदारों की संपत्ति है  


जिन फल से लदे पेड़ों का गुणगान होता है 

वो हर किसी के पेट भरने की संपदा नहीं है 

उसके ऊपर भी उनके मालिक का नाम होता है।


" पैसों ने नहीं बदला है गाँव को 

बदला है गांव को 

इसके जीवनरक्षक अभावों ने" 


थोड़ा सोचिए, जो वाकई 

लकड़ी के चूल्हे की रोटियों में इतना स्वाद होता है 

तो फिर गांव की बेटियों के घर शहर में क्यों बसाये जाते? 


शहरी दामाद से गाँव में रुतबा क्यों बढ़ जाया करता है?


चाहतें शहर की कहाँ बढ़ी गांव! 

चाहतें तो तुम्हारी बढ़ती गयी 

अपनी बेटियों को मिक्सी और गैस चूल्हे 

के बीच ब्याहने की 

और शहरी वधुओं को ला 

उन्हें चूल्हे की रोटियों का सौंधा स्वाद समझाने की।

कुछ ने चुपचाप समझौते किए 


कुछ ने अपना एक हाथ लम्बा घूंघट हटा 

सिर पर आँचल टिका 

श्रद्धा से तुलसी में जल डालते हुए 

कुछ जिरह कर दिया 

गलत को गलत और सही को सही कह दिया 

"तीन को तेरह" मानने से इनकार किया 

हर तरह के शोषण का प्रतिकार किया।


और बस तुम बदलने लगे 

और अपने बदलने का दोष

शहर पर मढ़ने लगे।



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