बेहाल प्रकृति
बेहाल प्रकृति
प्रकृति तेरी डालियों पर,
क्यों जीवन गुमसुम बैठा है ?
धुएं की चादर ओढ़ कर,
क्यों हर दम घुटता रहता है ?
चटकीली कलियां और नटखट डाली,
धूल से सनी पड़ी, क्यों तेरी हरियाली ?
आसमां से झांकते सांवरे, बाँवरे बदरा,
बूंदों के घुंघरू संग झूमते नहीं।
नशीली हवाएं अब संदेशे,
परदेसियों के लाती नहीं
कोयलिया अब कोई गीत गाती नहीं
कल-कल बहती नदिया रूठी,
झरनों का संगीत भी रूठा ।
क्यों ताल- तलैया मौन हुए ?
कहां गई मौसम की मनमानी ?
बगिया से अमिया खोई और सावन का झूला,
भादो का अंधियारा खोया कार्तिक का उजियारा।
जब भी हाथ पसारा हमने,
प्रकृति ने हमें दान दिया
जीने का सामान दिया,
जीवन का वरदान दिया।
लालच और लिप्सा में लिपटा मानव,
अपना हित साधे और प्रकृति को उजाड़े
अब जाग ! आंखें खोल ..
ये विनाश की कुल्हाड़ी छोड़ दे,
प्रकृति मां है उसके आंचल की ओट ले ..।